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प्रमेयचन्द्रिका टी० श०६ ४०१ ० १ वेदनानिर्जरास्वरूपनिरूपणम्
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टीका - ' सेणूणं भंते ! जे महावेयणे से महानिज्जरे, जे महानिज्जरे से महावेयणे ' गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! तद् नूनं निश्वयेन किम् यो महावेदनः महती वेदना दुःखं यस्य सः उपसर्गादिसमुत्पन्नविशिष्टदुःखवान् भवति सः महानिर्जर : महतीनिर्जरा यस्य एवंविधविशिष्टकर्मक्षयवान् भवति । अनयोश्च तादृशवेदननिर्जरयोः परस्परमविनाभावसम्बन्धद्योतनाय - माह-यो महानिर्जरः विशिष्ट कर्मक्षयवान् स किम् महावेदनो भवति ? इति प्रथमः प्रश्नः अथ द्वितीयं प्रश्नमाह - " महावेयणस्स य, अप्पवेयणस्स य से सेए जे पसत्थनिर्जराए 2 कारण हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि जो महावेदनावाला होता है वह महानिर्जरावाला होता है यावत् वह प्रशस्त निर्जरावाला होता है।
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टीकार्थ- सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा महावेदना और महानिर्जरा का स्वरूप फल की अपेक्षा से निरूपण किया है - इसमें गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं कि - ( से णूणं भंते ! जे महावेयणे से महानिज्जरे जे महानिज्जरे से महावेयणे) हे भदन्त ! जो महावेदना वाला होता है वह क्या महानिर्जरा वाला होता है ? तात्पर्य कहने का यह है कि जो उपसर्ग आदिसे उद्भूत विशिष्ट दुःखोंवाला होता है यह क्या विशिष्ट कर्मक्षय रूप निर्जरावाला होता है ? इस प्रकारकी इन दोनों वेदना और निर्जरा में क्या परस्पर अविनाभाव संबंध है ? इस बातको प्रकट करने के लिये पूछा गया है कि "जो महानिर्जरावाला होता है वह महावेदनावाला होता है" इस प्रकार यह प्रथम प्रश्न है । द्वितीय प्रश्न इस प्रकार से है - ( महा હે ગૌતમ ! તે કારણે મેં એવું કહ્યું છે કે જે મહાવેદનાવાળા હોય છે તે भहानि शवाजी हाय छे, ( यावत् ) ते प्रशस्त निर्भशवाणी होय छे.
ટીકા—સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા મહાવેદના અને મહાનિર્જરાનું સ્વરૂપ ફળની અપેક્ષાએ નિરૂપણ કર્યુ. છેઃ——
गौतम स्वाभी भड्डावीर अलुने सेवा प्रश्न पूछे छे है ( से णूणं भंते ! जे महावेयणे से महानिज्ञ्जरे, जे महानिज्ञ्जरे से महावेयणे ) डे लहन्त ! જીવ મહાવેદનાવાળા હાય છે, તે શું મહાનિર્જરાવાળા હાય છે? પ્રશ્નને ભાવા નીચે પ્રમાણે છે—
જે જીવ ઉપસગ આદિથી જનિત વિશિષ્ટ દુ:ખાવાળા હાય તે શું વિશિષ્ટ ક ક્ષયરૂપ નિર્જરાવાળા હાય છે ? આ પ્રકારની વેદના અને નિરા વચ્ચે શું અવિનાભાવ સબંધ છે? એ વાત જાણવાને માટે જ આ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યા છે કે “ જે મહાનિર્જરાવાળા હાય તે શુ' મહાવેદનાવાળે होय छे ? " जीले प्रश्न मा अमाणे पूछयो --
श्री भगवती सूत्र : ४