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________________ ६० भगवतीसूत्रे पद्यते, यदा खलु उत्तरार्धेऽपि प्रतिपद्यते, तदा जम्बूद्वीपे द्वोपे मन्दरस्स पर्वतस्य पौरस्त्ये पश्चिमे नैवास्ति अवसर्पिणी, नैवास्ति अवसर्पिणी, अवस्थितस्तत्र काल: प्रज्ञप्तः, श्रमणायुष्मन् ? हन्त, गौतम ! तच्चैव-उच्चारयितव्यम् , यावत्-श्रमणायुष्मन् ! यथा अवसर्पिण्या आलापको भणितः, एवम् उत्सर्पिण्या अपि भणितव्यः ।। टीका-कालाधिकारातद्विशेषऋतु-अयनादि वक्तव्यतामाह-' जया णं भंते !' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' काल होता है (जया णं उत्तरडे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ) जब उत्तरार्ध में भी प्रथम अवसपिणी काल होता है तब (जंबुद्दीवे दीवे मंद. रस्स पव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं पुरस्थिमेणं णेवत्थि ओसप्पिणी,नेवत्थि उस्सप्पिणी,अवढिएणं तत्थं काले पण्णत्ते समणाउसो) जंबूद्वीप नाम के द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व और पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं है, उत्सर्पिणी नहीं है, तो क्या हे श्रवण ! आयुष्मन् ! वहां पर अवस्थित काल कहा गया है ? (हंता! गोयमा! तं चेव जाव उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो। जहा ओसप्पिणीए आलावगो भणिओ एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियव्यो) हे गौतम ! हां, इसी तरह से है-यावत् पूर्व की तरह सब समझना चाहिये हे श्रमण आयुष्कतक जिस प्रकार अवसर्पिणी के विषय में कहा है उसी प्रकार से उत्सर्पिणी के विषय में भी जानना चाहिये। टीकार्थ-काल का अधिकार होने से शास्त्रकार उसके विषयरूप ऋतु अयन आदि की वक्तव्यता इस सूत्र द्वारा कह रहे हैं-(जया णं ५९ प्रथम मसपिए डाय छ ? (जया णं उतर वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ.) यारे उत्तराधमा ५१ प्रथम अक्सपिणी ॥ जय छ, ( तया णं जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पच्चत्थिमेण णेवत्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवट्ठिए ण तत्थंकाले पण्णत्ते समणाउसो) न्यारे જબૂદ્વીપ નામના દ્વિીપમાં મંદર પર્વતની પૂર્વ અને પશ્ચિમે અવસર્પિણી કાળ હોતું નથી. ઉત્સર્પિણી કાળ હોતા નથી તે તે હે શ્રમણ ! આયુષ્મન ! ત્યાં शुअवस्थित पण ह्यो छे ? (हता, गोयमा ! तं चेव जाव उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो ! जहा ओसप्पिणीए आलावगो भणिओ, एवं उत्सप्पिणीए वि भाणियव्वो) ७, गौतम ! मेरी पने छे. पूर्व ५६ प्रमाणे । समस्त ४थन वं જોઈએ. હે શ્રમણ ! આયુમન ! પર્યન્તનું સમસ્ત કથન ગ્રહણ કરવું. ઉત્સપિ. ણીના વિષયમાં પણ અવસર્પિણી પ્રમાણેજ કહેવું જોઈએ. ટીકાર્થ– કાળનું નિરૂપણ ચાલી રહ્યું છે. તેથી તેના ભાગરૂપ ઋતુ, અયન मानि मा सूत्रा। सूत्रक नि३५ ४२ छ-( जयाणं भंते ! ) या गौतम श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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