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प्रमैयचन्द्रिका टी० श. ५३०९ सू० ३ नैरयिकादि - समयशाननिरूपणम् ७०७ जीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियादीनामपि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपर्यन्तानाम् समयादिज्ञानं न संभवति, तथा एतन्मनुष्यक्षेत्रादू बहिर्वतिनां सर्वेषामपि समयादिज्ञानाभावो बोध्यः, मनुष्यक्षेत्रादन्यत्र समयादिकालस्याभावेन समयादिव्यवहाराभावात् , इत्याशयः । गौतमः पृच्छति-अस्थि णं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पन्नायए ? ' हे भदन्त ! अस्ति संभवति खलु मनुष्याणां मनुष्यरित्यर्थः, इहगतानाम् , एतन्मनुष्यक्षेत्रगतैः एवं वक्ष्यमाणपकारेण प्रज्ञायते यत्-' तं जहा-समया इ वा, जाव-उस्सपिणी इ वा' तद्यथा-समया इति वा अयं समयपदार्थः इत्येवं रूपेण, प्रकार से यावत् जो पंचेन्द्रिय तिर्यच जीव हैं, वे भी इन समयादिक पदार्थों को नहीं जानते हैं। यद्यपि ये पंचेन्द्रिय तिर्यच मनुष्यलोक में रहते हैं-परन्तु इनमें इतनी योग्यता नहीं होती जो इन्हें जान सके। यहां यावत् शब्द से यह प्रकट किया गया है कि भवनपति एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जो जीव हैं वे भी इन समयादिकों के ज्ञान से रहित हैं। तथा जो जीव इस मनुष्यलोक से बाहर के क्षेत्रों में रहते हैं वे भी सब समयादिकों के ज्ञान से शून्य रहते हैं। क्योंकि मनुष्यक्षेत्र से अन्यत्र समयादिक काल का अभाव है इस कारण वहां पर समयादिरूप से व्यवहार नहीं होता है। ____ अब गौतम प्रभु से पूछते हैं (अस्थि णं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पनायए) हे भदन्त ! मनुष्यलोकवर्ती मनुष्यों द्वारा क्या ऐसा जाना जाता है (तं जहा) जैसे कि (समयाइ वा) यह समय है (जाव उस्सप्पिणीइ वा ) यावत् यह सर्पिणीकाल है-अर्थात् मनुष्यलोकस्थित जोणियाणं ) ना२४ वानी भ०४ पयन्द्रिय तिय य प -तना याने ५५ સમયાદિ પદાર્થોનું જ્ઞાન હેતું નથી. જો કે તે પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છ મનુષ્ય લેકમાં રહે છે, પણ તેમનામાં સમયાદિકને જાણી શકવાની યોગ્યતા
ती नथी. मी 'जाव ' ( 4-1 ) ५४थी से ५४८ ४२वामा मा०युं छे કે ભવનપતિ, એકેન્દ્રિય, હીન્દ્રિય, તેઈન્દ્રિય અને ચતુરિન્દ્રિય જીને પણ સમયાદિકેનું જ્ઞાન હોતું નથી. તથા જે છે આ મનુષ્યલેકની બહારનાં ક્ષેત્રેમાં રહે છે તેમને પણ સમયાદિ કેનું જ્ઞાન હોતું નથી. કારણ કે મનુષ્ય લેક સિવાયનાં અન્ય ક્ષેત્રેમાં સમયાદિક કાળને અભાવ હોય છે, તે કારણે ત્યાં સમયાદિ રૂપે વ્યવહાર થતો નથી.
वे गोतम स्वामी महावीर प्रसुने मेवा प्रश्न पूछे छे है ( अस्थिणं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पन्नायए) के महन्त ! मनुष्य सभा २ai भनुष्यो बारा शुको arel सय छ “ तंजहा" : " समयाइ वा " " !
श्री. भगवती सूत्र:४