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________________ M ain भगवती पृथिव्यादिसमुदायो राजगृहमिति पोच्यते, पृथि व्यादिसमुदायं विना राजगृहशब्दमत्तेरभावात् । —जाव-सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दवाई नयरं रायगिहं वि पवुच्चइ' यावत्-सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रितानि, सचित्तानि, अचित्तानि, मिधितानि-सचित्ताऽचित्तयुक्तानि द्रव्याण्यपि राजगृहं नगरमिति पोच्यते, यावत्करणात्-उपयुक्त सर्व संग्राह्यम् । गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति-'से केणटेणं ? ' तत् केनार्थेन केन कारणेन एवमुच्यते ? राजगृहनगरस्य पृथिव्यादिव्यवहारे को हेतुः? इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा ! पुढवी जीवा इ य, अजीया इ य, जयरं रायनगर इस शब्द की प्रवृत्ति हो नहीं सकती है-अतः पृथिवी आदि का जो समुदाय है वह राजगृह नगर है इस प्रकार से कहने में कोई बाधा नहीं आती है। (जाव सचित्ताचित्तमीसियाई दवाई नयरं रायगिहंति पवुच्चइ) इसी कारण से ऐसा भी कह सकते हैं कि यहां के जितने भी सचित्तद्रव्य अचित्तद्रव्य और मिश्रद्रव्य हैं-वे सब राजगृह नगर रूप हैं या राजगृह नगर इन सब रूप है। यहां यावत्पद से उपर्युक्त सब पाठ ग्रहण किया गया है। अब गौतम इस प्रकार के व्यवहार करने में कारण पूछते हुए प्रभु से कहते हैं-(से केगटेणं) हे भदन्त ! ऐसा जो आप कहते हैं सो इसमें क्या कारण है ! अर्थात् राजगृह नगर का पृथिव्यादिरूप से व्यवहार करने में क्या हेतु है ? भगवान् इसके समाधान निमित्त गौतम से कहते हैं कि-(गोयमा) हे गौतम ! (पुढवी जीवाइय अजीवाइय नयरं रायगिहंति पवुचह) राजगृह नगर जीवाजीव શકતું નથી. તેથી પૃથ્વી આદિને જે સમુદાય છે તેને રાજગૃહ નગર રૂપે सोमवामा ७ ५९] माघ मावत नथी. (जाव सचित्ताचित्तमीसियाई दवाई नयर रायगिह ति पवुच्चइ) मे ४२ मे ५५ ४डी शय छ કે અહીં જેટલાં સચિત્ત દ્રવ્ય છે, અચિત્ત દ્રવ્ય છે, અને મિશ્ર દ્રવ્ય છે, તે બધાં રાજગૃહ નગર રૂપ છે અથવા રાજગૃહ નગર એ સમસ્ત દ્રવ્યો રૂપ छ. मी 'जाव' (यावत् ) पहथी युत समस्त 8 अ ४२वामा આવ્યું છે. હવે ગૌતમ સ્વામી આ પ્રકારને વ્યવહાર કરવાનું કારણ જાણે पाने माटे मडावीर प्रभुने २ प्रमाणे प्रश्न पूछे छ-" से केणट्रेण" 3 ભદન્ત! આપ શા કારણે એવું કહે છે? એટલે કે રાજગૃહ નગરને પૃથ્વી, જળ, તેજ આદિ રૂપે આ૫ શા કારણે ઓળખાવે છે ? તેને જવાબ मापता महावीर प्रभु ४ छ-" गोयमा ! " गौतम ! “पुढवी जीवाइ य अजीवाइ यनयर रायगिह ति पश्चह" नगर ७१७ स्मा. श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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