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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श. ५ ३०० सू०५ परमाणुपुद्गलदीनां निरूपणम् ५२३ कालं ' हे गौतम | परमाणुपुद्गलस्य स्कन्धादिरूपेण परिणामानन्तरं पुनः परमामा अन्तर जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम् असंख्यात - कालपर्यन्तं भवति । गौतमः पुनः पृच्छति' दुप्परसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतर कालओ केवरि होइ ?' हे भदन्त । द्विपदेशिकस्य खलु स्कन्धस्य अन्तर कालतः कियच्चिर कियत्कालं भवति ? भगवानाह - ' गोयमा ! जहणणं कहते हैं (गोयमा ) हे गौतम ! ( जहणणेणं एगं समयं, उक्कोसेर्ण असंखेज्जं कालं ) कम से कम एक समय का और अधिक से अधिक असंख्यात काल का अंन्तर पड़ता है । परमाणु जब अपने परमाणुत्वरूप स्वभाव का परित्याग कर देता है अर्थात् स्कन्धरूप पर्याय से आक्रान्त हो जाता है, तब वह पुनः अपने परमाणुरूप स्वभाव में कम से कम एक समय में और अधिक से अधिक असंख्यात काल में आ जाता है। अब गौतम स्वामी प्रभु से यह पूछते हैं ( दुप्प एसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ) हे भदन्त ! जो द्विप्रदेशिक स्कन्ध है उसका अन्तर काल कितना होता है ? अर्थात् किसी विप्रदेशिक स्कन्ध ने अपनी द्विप्रदेशिक अवस्था का परित्याग कर अन्य त्रिप्रदेशिक स्थिति को प्राप्त कर लिया - बाद में वह पुनः अपनी छिप्रदेशिक पर्याय में आगया तो इस पर्याय को छोड़ने के बाद पुनः उसी अवस्था में आने पर कितना अन्तर पड़ता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ) हे गौतम । ( जहण्जेण एवं समयं उक्फोसणं उत्तर – “ गोयमा ! " हे गौतम! " जहाणेण एग समय, उक्को सेणं असंखेज्ज काल " तेम थवामां आछामा गोधु मे समयनुं मने वधारेभा વધારે અસખ્યાત કાળનું અંતર પડે છે. એટલે કે જો કાઇ પરમાણુ પેતાની પરમાણુ પર્યાયન્ય ત્યાગ કરીને સ્કન્ધરૂપ પર્યાયને ધારણ કરે, અને ત્યારબાદ ફરી પરમાણુ રૂપ પર્યાયને ધારણ કરે, તે એ રીતે મૂળ પર્યાયમાં આવતા તેને આછામાં ઓછે. એક સમય અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ લાગશે, गौतम स्वामीन। प्रश्न - " दुप्पएसियस्स णं भते ! खंधस्स अंतर कालओ hasa होइ ? " डे लहन्त ! द्विप्रदेशी उन्धना अंतराल ( विराज ) કેટલા હાય છે ? એટલે કે કાઇ દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધ પેાતાની તે અવસ્થાને ત્યાગ કરીને દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધરૂપે પરિણમે છે. ત્યારબાદ ફરીથી તે દ્વિદેશી સ્કન્ધરૂપ પર્યાયમાં આવી જાય છે. તેા પેાતાની મૂળ પર્યાયને છેડયા પછી ફરીથી એ જ પર્યાયમાં આવતા તેને કેટલા કાળનું અતર પડે છે? श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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