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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श०५ ३०७ सू०४ परमाणुपुद् गलदीनांस्पर्शना निरूपणम् ४९५ भवति यदा तु तस्यैकस्मिनाकाशप्रदेशे सूक्ष्मपरिणामतया द्वौ प्रदेशौ, अपरत्र एका प्रदेशोsवस्थितः स्यात् तदा एकाकाशप्रदेशस्थित प्रदेशद्वयस्यापि परमाणोः स्पर्शविषयतया 'सर्वेण देशी स्पृशति' इति व्यपदेशो भवति यदा तु त्रिदेशिकः सुक्ष्मपरिणामन्यात एकाकाशप्रदेशस्थितो भवति तदा 'सर्वेण सर्व स्पृशति' इति व्यपदिश्यते । 'जहा परमाणुपोगले तिप्पएसियं फुसाविओ एवं फुसावेयच्चो जात्र- अनंत पएसिओ' यथा परमाणुपुद्गलः त्रिमदेशिकं स्पर्शितः स्पर्शं कारितः, एवं तथा स्पर्शयितव्यः स्पर्श कारयितव्यः यावत् - अनन्तपदेशिकः तथा च चतुष्पदेशिकादारभ्य स्थित रहता है अपने निज के सर्वरूप से ही उस त्रिप्रदेशी स्कन्ध के एक देश को स्पर्श करता है ऐसा व्यवहार होता है और जब आकाश के एक ही प्रदेश में सूक्ष्म परिणाम से परिणत हो जाने के कारण उस प्रदेशी स्कन्ध के दो प्रदेश रहते हों और एक प्रदेश अन्यत्र अवस्थित हो तो ऐसी स्थिति में एक आकाश प्रदेश में स्थित वह प्रदेशइय उस परमाणु द्वारा अपने सर्वरूप से स्पर्शित होने के कारण ( सर्वेण देशौ स्पृशति ) ऐसा व्यवहार होता है । और जब त्रिप्रदेशिक स्कंध सूक्ष्म परिणाम से परिणत होकर एक आकाश के प्रदेश में स्थित रहता है तब पुल परमाणु उस सब को अपने सर्वरूप से स्पर्श करता हैइस स्थिति में नवम विकल्प सध जाता है । ( जहा परमाणुपोग्गले तिप्पएसियं फुसाविओ एवं फुमा वेगव्वो जाव अनंतपएसओ) जिस प्रकार से एक परमाणुपुद्गल त्रिप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता है इसी રહેલ હાય છે, તે પેાતાના સમસ્ત ભાગ વડે તેના એક જ દેશને સ્પ કરી શકે છે. પણ જ્યારે આકાશના એક જ પ્રદેશમાં સૂક્ષ્મ પરિણામે પરિશુમિત થઈ જવાને કારણે તે ત્રિપ્રદેશિક સ્કન્ધના એ પ્રદેશા રહેલા હાય છે અને એક પ્રદેશ અન્યત્ર રહેલા હાય છે ત્યારે એક આકાશ પ્રદેશમાં રહેલા તે એ પ્રદેશના તે પરમાણુના સમસ્ત ભાગ વધુ સ્પર્ધા થાય છે. તેથી જ " सर्वेण देशौ स्पृशति " मा स्थननुं प्रतिपादन थाय छे भने ल्यारे त्रिअद्वे શિક સ્કન્ધ સૂક્ષ્મ પરિણામે પરિણમીને આકાશના એક પ્રદેશમાં રહેàા હાય છે, ત્યારે તે પુલ પરમાણુ પાતાના સમસ્ત ભાગથી તે આખા ત્રિપ્રદેશિક सुन्धना स्पर्श रे हो. या रीते " सर्वेण सर्वं स्पृशति ” मा नवमां विहयनुं પણ પ્રતિપાદન થઈ જાય છે. 66 जहाँ परमाणुपोगले तिप्पए सियं कुसाविओ एवं फुसावेयब्त्रो जाव अनंतपएसओ " ने रीते मे परमाणु युद्ध त्रिप्रदेशि न्धनो श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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