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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श०५३०६ सू०९ मृषावादिकर्मबंधस्वरूपनिरूपणम् ४४३ यस्मिन्नेव भवे अभिसमागच्छति-जन्म गृह्णाति, तत्रैव तस्मिन्नेव खलु भवे संवेदयति, अभ्याख्यानफलं दुःखादिकम् अनुभवति ' तओ से पच्छा वेदेइ । ततः स पश्चात् प्रतिसंवेदनानन्तरम् , वेदयति-निरयति । अन्ते गौतमो वदति-सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! भवदुक्तं सर्व सत्यमेवेत्याशयः ॥ सू० ९॥ इति श्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचकपश्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालबतिविरचिता श्री भगवतीसूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां पञ्चमशतकस्य षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥५-५॥ इनके फलोंको भोगता है-अर्थात् इस प्रकार की प्रवृत्ति से इसी प्रकार के फलवाले कर्मों का बंध कर जीव जिस गति में जन्म लेता है वह उसो गति में इनके धल स्वरूप दुःखादिकों का अनुभव करता है। (तओ से पच्छा वेदेह) और अनुभव करने के बाद उनकी निर्जरा कर. ता है । तात्पर्य कहने का यह है कि ( नामुक्त क्षीयते कर्म" इस सिद्धान्त के अनुसार यहां पर यह प्रकट किया गया है कि जीव जिन अशुभ प्रवृत्तियों से दुःखप्रद कर्मो का बन्ध करता है वह उनका फल अवश्य ही या तो उस गृहीत भव में ही भोगलेता है और भोगने से जो बाकी बचता है उसे वह जहां भी जन्म धारण करता है वहां भोगता है इस तरह भोगते २ वह कभी उन कर्मों की निर्जरा भी कर देता है। ___ अन्त में अब गौतम स्वामी प्रभु के इस कथन की अंन्तः करण से કે આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી એજ પ્રકારના ફળવાળાં કર્મોને બંધ કરીને જીવ જે. ગતિમાં જન્મ લે છે, એ ગતિમાં તેના વિપાકરૂપ દુઃખાદિકનો અનુભવ કરે છે. "तओ से पच्छा वेदेइ" भने तेन मनुल या पछी तनी नि। रे छ. ४ानु तात्पर्य से छे , " नामुक्त क्षीयते कर्म " मा सिद्धांत मनुसार અહીં એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે જીવ જે અશુભ પ્રવૃત્તિ દ્વારા દુઃખપ્રદ કમેને બંધ કરે છે, તેનું ફળ અવશ્ય ભેગવે છે. કદાચ વર્તમાન ભવમાં તે ફળને પૂરેપૂરું ભેગવી ન લે, તે જેટલું ફળ ભોગવવાનું બાકી રહે તેટલું ફળ જ્યાં જન્મ ધારણ કરે ત્યાં ભગવે જ છે. આ રીતે તેનું વેદન કરતાં કરતાં તે કયારેક એ કર્મોની નિર્જરા પણ કરી નાખે છે. श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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