________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ उ०१ ० २ रात्रि दिवस स्वरूपनिरूपणम् २१
मुहूर्ती दिवसोभवति, तदा पश्चिमेऽपि यदा पश्चिमेऽपि तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर - दक्षिणे उत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति १ हन्त, गौतम ? यावत् - रात्रिर्भवति ।। सू-२ ॥
टीका - अथ रवेचतुर्दिक्षु परिभ्रमणेऽपि तत्प्रकाशस्य प्रतिनियत दिक्पातितया रात्रिदिवसव्यवस्थां क्षेत्रभेदेन प्रतिपादयितुमाह- 'जयाणं भंते!' इत्यादि । गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! यदा खलु 'जंबुद्दीवे दीवे ' जम्बूद्वीपे द्वीपे मध्यजम्बूद्वीपे
तया णं पच्चत्थिमे णं वि, जहाणं पच्चत्थिमेणं वि तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स व्वयस्स उत्तरदाहिणेण उक्कोसिया अट्ठार समुहुत्ता राई भ वह ) हे भदन्त ! जब जंबूद्वीप नामके द्वीप में मंदरपर्वत की पूर्वदिशा की ओर सब से कम बारह मुहूर्त्त का दिवस होता है, तब पश्चिम की ओर भी वैसा ही होता है। और जब पश्चिम की ओर भी बेसा होता है, तब जंबूद्वीप नामके द्वीप में मंदर पर्वत की उत्तर दक्षिण दिशा तरअधिक अठारह मुहूर्त्त की रात्रि भी होती है क्या ? (हंता गोयमा ! जाव राई भवइ ) हां, गौतम ! इसी प्रकार से रात्रि होती है यावत् अधिक से अधिक अठारह मुहूर्त्त की रात्रि होती है ॥
फ
टीकार्थ- सूर्य चारों दिशाओं में भ्रमण करता है - फिर भी उसका प्रकाश प्रतिनियत दिशाओं में ही पड़ता है, इस कारण रात्रि दिवस की व्यवस्था को सूत्रकार क्षेत्र भेद द्वारा प्रतिपादन करने के लिये कहते हैं- ( जया णं भंते ) इत्यादि ।
जहन दुवालसमुह दिससे भवइ, तया णं पञ्चस्थिमे णं वि, जया पचत्थिमेणं वि तयाणं जंबुद्दीवे दीवे मंदरम्स पब्त्रयस्स उत्तर दाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुता राई भवइ) हे लहन्त ! ल्यारे द्वीप नामना द्वीपमा भर पर्वतनी પૂર્વ દિશા તરફ ટૂંકામાં ટૂંકા ૧ર બાર મુહૂતના દિવસ થાયછે, ત્યારે શું પશ્ચિમ તરફ એવું અને છે, અને જ્યારે પશ્ચિમ તરફ એવું બને છે ત્યારે શુ જ ખૂદ્બીપના મંદર પર્વતની ઉત્તર દક્ષિણ દિશા તરફ લાંબામાં લાંખી ૧૮ मढार भुहूर्त'नी रात्रि होय छे ? (हंता गोयमा ! जाव राई भवइ ) डा, गौतम ! એવુ જ અને છે-(લાંબામાં લાખી ૧૮ અઢાર મુહૂર્તની રાત્રિ હાય છે,) ત્યાં સુધીનું સમસ્ત કથન ગ્રહણ કરવું.
ટીકા-સૂર્ય ચારે દિશાઓમાં ભ્રમણ કરે છે. પણ તેને પ્રકાશ પ્રતિ નિયત દિશાઓમાં જ પડે છે, તેથી રાત્રિ દિવસની વ્યવસ્થાનું ક્ષેત્રભેદ દ્વારા अतिपाहन उखाने भाटे सूत्रार डे छे - ( जया णं भ'ते ! ) इत्याहि
श्री भगवती सूत्र : ४