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________________ प्रमेयचन्द्रिका टोका ० ५ उ०४ १०२ छमस्थशब्दश्रवणनिरूपणम् १९९ पञ्चत्थिमेणं, णं, उड़, अहे मियं पि जाणइ ' दक्षिणे दक्षिण दिग्भागे पश्चिमे पश्चिमदिग्भागे, उत्तरे उत्तरदिग्भागे, ऊर्ध्वम् = ऊर्ध्वलोके, अधः = अधोलोके सर्वनैवेत्यर्थः, मितमपि जानाति अमितमपि जानाति, 'सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली' सर्व जानाति केली, सर्व पश्यति केवली मनुष्यः, 'सबओ जाणइ, पासइ,' सर्वतो द्रव्यादिसर्वप्रदेशान् जानाति. पश्यति, 'सबकालं सब्बभावे जाणइ केवली' सर्वकालम् सर्वस्मिन् काले सर्वभावान् जीवाजीवादि पदार्थान् जानाति केवली, 'सव्वभावे, पासइ केवली' सर्व भगवान् पश्यति केवली, तत्र कारणमाह-' अणंते णाणे केवलिस्स' अनन्तं ज्ञानम् अनन्तार्थविषयकत्वात् केवलिनः, 'अणंते दंसणे केवलिस्स ' अनन्तं दर्शनम् केवलिनोऽनन्तार्थसमस्त जीवा जीवादिक पदार्थों को भी जानते हैं ' एवं ' इसी तरह से 'दाहिणेणं पच्चत्थिणं,उत्तरेणं, उडू अहे मियपि जाणइ, अमियपि जा. गह' वे दक्षिण दिशा में, पश्चिमदिशा में उत्तर दिशा में, ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में-सर्वत्र ही-मित-परिमित पदार्थ को भी जानते देखते हैं और अपरिमित पदार्थ को भी जानते देखते हैं । ' सव्व जाणइ केवली सव्वं पासइ केवली' क्यों कि सिद्धान्त की ऐसी अकाटय मान्यता है कि केवली भगवान केवलज्ञान से समस्त रूपी अरूपी पदार्थों को उन की समस्त पर्यायों सहित जानते हैं और केवल दर्शन से समस्त रूपी अरूपी पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों के साथ देखते हैं । ' सचओ जाणइ पासइ' सर्व प्रकार से केवली भगवान् द्रव्यादिकों के समस्त प्रदेशों को जिन २ द्रव्यों के जितने २ प्रदेश हैं उन सबको जानते हैं और देखते हैं । 'सव्वकालं सव्वभावे जाणइ केवली' इसलिये केवली प्रभारी (दाहिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं, उडूढं, अहेमि पि जःणइ, अमियं पि जाणइ ) ते दक्षिण दिशामा, उत्त२ Cिशमा, पश्चिम हामi, sq લેકમાં અને અલેકમાં-સર્વત્ર-પદાર્થોને પણ જાણે છે અને દેખે છે. એટલું नही ५५५ २५५मित पहानि ५५ ) छ भने तुमे छे. (सव्वं जाणइ केवली. सव्वं पासइ केवली ) २६सिद्धांतनी मेवी मान्यता छ वली ભગવાન કેવળજ્ઞાન વડે સમસ્ત રૂપી, અરૂપી પદાર્થોને તેમની અનંત પર્યાયે સહિત જાણે છે, અને કેવળદર્શન વડે સમસ્ત રૂપી અને અરૂપી દ્રવ્યને तमनी मानत पर्याय सहित से छे. (सबओ जाणइ पासइ ) पक्षी म1વાન સર્વ પ્રકારે દ્રવ્યાદિકના સમસ્ત પ્રદેશને-જે જે દ્રવ્યના જેટલા જેટલા प्रदेश। छ त सपा प्रदेशाने त छ भने छ (सव्वकालं सव्वभावे श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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