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________________ १९६ भगवती सूत्रे परस्पराहताः सन्तश्चतुर्दिग्भ्य उर्ध्वाधोभागाभ्यां च संमेल्य पडदिक्ष्वपि मसृताच श्रवणगोचरा भवन्ति, अतएवोक्तम् । जात्र नियमा छद्दिर्सि ' इति, गोतमः पुनः पृच्छति - 'छउमत्थे णं भंते ! मणू से ' हे भदन्त ! छद्मस्थः खलु मनुष्यः ' किं आर गयाई सद्दाई सुणेइ पारगया सदा सुणे ' किम् आरा द्गतान् समीपस्थान इन्द्रियविषयतां गतान् शब्दान् मृगोति ? अथवा किम् पार गतान् इन्द्रिय विषयतया परतोऽव स्थितान् शब्दान् शृणोति ? भगवानाह 'गोयमा ! हे गौतम! आरगयाई सदाई सुणेइ' आराद् गतान् इन्द्रियनिकटस्थान शब्दान् शृणोति, 'णो पारगयाई सदाई सुणे' नो पारगतान् इन्द्रिय दूरस्थितान् शब्दान् शृणोति अथ गौतमः केवलिविषये प्रश्नं करोति 'जहाणं भंते! इत्यादि । हे भदन्त ! न्याय के अनुसार परस्पर में आहत होते हुए चारों दिशाओं में एवं ऊर्ध्व और अधोदिशा में फैल जाते है तब वहां से वे श्रवणेन्द्रिय के विषयभूत बनते हैं। इस तरह छहों दिशाओं से आगत शब्द सुने जाते हैं ऐसा कहा है । , अब गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि ' छउमत्थूणं भंते! मणूसे ' हे भदन्त ! छद्मस्थ मनुष्य ' कि आरगयाई सदोई सुणेइ ? जो शब्दों को सुनता है सो क्या वह इन्द्रिय के विषयरूप से पास में हुए शब्दों को सुनता है ? या इन्द्रिय के विषय से दूर हुए शब्दों को सुनता है ? इस के उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि 'गोधमा ' हे गौतम ! ' आरगयाई सद्दाई सुणेइ ' छद्मस्थ श्रोता इन्द्रिय के समीप रहे हुए ही शब्दों को - इन्द्रिय के योग्य देशस्थित हुए ही शब्दों को सुनता है इन्द्रिय के विषयभूतक्षेत्र से दूर रहे हुए शब्दों को वह नहीं सुनता है। इतनी बात सुनकर गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि 'जहा તથા ઊર્ધ્વ અને અધા દિશામાં ફેલાવા માંડે છે. એ આંદોલના જ્યારે કાન સાથે અથડાય ત્યારે જ અવાજ સભળાય છે. માટે જ છએ દિશામાંથી આવતા શબ્દોને તે સાંભળે છે, ” એવું પ્રતિપાદન કરાયું છે. (6 "" प्रश्न- ( छउमत्थेनं भंते! मणूसे ) हे लहन्त ! छद्मस्थ मनुष्य ( किं आरगयाई सहाई सुणेइ, पारगयाई सहाई सुणेइ १ ) शुं पासेना शब्होने सांलजे છે કે દૂરના શબ્દોને સાંભળે છે ? उत्तर (गोयमा ! आरगयाईं सहाई सुणेइ ) हे गौतम! छद्मस्थ श्रोता ઇન્દ્રિયની નજીકના શબ્દોને-કણેન્દ્રિય દ્વારા શ્રવણ કરી શકાય એટલે અ`તરેથી આવતા શબ્દોને સાંભળે છે, પણ ઇન્દ્રિયના વિષયભૂત ક્ષેત્રથી દૂરના શબ્દોને સાંભળતા નથી श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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