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________________ १३२ भगवतीसूत्रे खलादिनाऽऽकुट्टनद्वारा सम्यकपरिष्कृतानि वह्निना परिपक्वानि च भूत्वा अग्निजीवशरीराणि इत्युच्यन्ते इत्याशयः । अथवा अत्र शस्त्रपदेन अग्निइव सर्वत्र गृह्यते। अथ 'सुराए य ' सुरायां च ' जे दवेदव्वे ' यानि द्रवद्रव्याणि वर्तन्ते ' एएण' एतानि खलु 'पुव्वभावपन्नवणं पडुच्च' पूर्वभावप्रज्ञापनों प्रतीत्य पूर्वावस्थामङ्गीकृत्य ' आउजीवसरीरा' प्रथमम् अब्जीवशरीराणि' 'तओपच्छा' ततः पश्चात् यदा — सस्थातीआ' शस्त्रातीतानि शस्त्रैः स्वकाया दिशस्त्रैः पूर्वपर्यायमतिक्रामितानि जाव-यावत्-शस्त्रपरिणामितानि, अग्निध्यामितानि, अग्निजोषि. तानि, अग्निसेवितानि अग्निपरिणामितानि भवन्ति तदा, 'अगणिकायसरीराइ' अग्निकायशरीराणि इति ‘वत्तव्वंसिया ' वक्तव्यं स्यात् । हैं। और जब ये ओखली आदि में डालकर मुशल आदि से कूटने के साधनों से कटे जाते हैं, और अच्छी तरह से साफ करके अग्निद्वारा पकाये जाते हैं तब ये पक जाने पर अग्निजीव के शरीर हैं इस प्रकारसे कहे जाते हैं । अथवा यहां सूत्र में आये हुए शस्त्र पद से सर्वत्र अग्नि को ही ग्रहण किया गया है। (सुराए य ) सुरा में (जे दवे दवे) जो द्रव द्रव्य है ( एएणं ) ये सष द्रवद्रव्य (पुवपन्नवणं पडुच्च) पूर्वभावप्रज्ञापना को आश्रित करके पूर्व अवस्था को अङ्गीकार करके पहिले ( आउजीवसरीरा) अप्काय के शरीर थे इस प्रकार से कहे जा सकते हैं । ( तओ पच्छा ) इसके बाद जब वे (मत्थाईया ) शस्त्रातीत शस्त्रोद्वारा स्व काय आदि शस्त्रों द्वारा अपनी पूर्वपर्याय से रहित कर दिये जाते हैं (जाव ) यावत् शस्त्रपरिणामित स्वकाय आदि शस्त्रों द्वारा और भी दूसरी पर्यायवाले बना दिये जाते हैं, तथा अग्निध्यामित, अग्नि जोषित, अग्निसेवित, અને જ્યારે ખાંડણિયા આદિમાં નાખીને મૂશળ આદિ વડે તેને ખાંડવામાં આવે છે, અને ત્યાર બાદ સાફ કરીને જ્યારે તેને અગ્નિ પર પકાવવામાં આવે છે, ત્યારે તેને અગ્નિકાય જીવનું શરીર કહી શકાય છે અથવા અહીં સૂત્રમાં આવેલા શસ્ત્ર પદથી સર્વત્ર અગ્નિને જ ગ્રહણ કરેલ છે. “ सुराए य " सु२॥ (महि) मा " जे दवे दवे" रे प्रवाही द्र०ये। छ, " ए ए णं" सजा प्रवाहीद्रय " पुवपन्नवणं पडुच्च" पूर्वमा प्रज्ञापनानी अपेक्षा सेटले पूर्व पर्यायनी अपेक्षा ५सा “आउजीवसरीरा" सायनां शरी२ उतi, अमही शय छ “तओ पच्छा " त्या२ मा न्यारे "सत्थाईया" शस्त्रो द्वारा- २१४ाय माहिशखो बा२।- तेने पूर्व पर्यायथी २डित ४२शय छ, “ जाव" यावत् शखपरियाभित. १४ाय माहिशसोदा। भी પર્યાયવાળા બનાવી દેવાય છે, તથા અનિદ્વારા અગ્નિપરિણામિત પર્યન્તની श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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