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________________ - - प्रमेयचन्द्रिका टीका २० ६ उ०५ सू०३ लोकान्तिकदेवविमानादिनिरू० ११२५ __गौतमः पृच्छति-'लोगंतियविमाणेसु णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ?' है भदन्त ! लोकान्तिकविमानेषु कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? भगवानाइ'गोयमा ! अट्ठ सागरोवमाई ठिई पण्णता' हे गौतम ! अष्टसागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । गौतमः पृच्छति-' लोगंतियविमाणेहिंतो गं भंते ! केवइयं अबाहाए लोगते पण्णत्ते' हे भदन्त ! लोकन्तिकविमानेभ्यः कियस्क कियहरम् अबाधया अन्तरेण व्यवधाने नेत्यर्थः लोकान्तः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह--' गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अवाहाए लोगंते पण्णत्ते' हे गौतम ! असंख्येयानि यिक रूप से, तेजस्कायिकरूप से, वायुकायिक रूप से, वनस्पतिकायिक रूप से देव एवं देवीरूप से उत्पन्न हुए हैं ? तब इसके उत्तर में (जाव हंता, गोयमा ! असई अदुवा) इत्यादि रूप से प्रभु ने उत्तर दिया है। ___ अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं कि-(लोगंतियत्रिमाणेसुगं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदन्त ! लोकान्तिक विमानों में कितनी स्थिति है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि 'गोयमा' गौतम ! (अट्ठसागरोषमाइं ठिई पण्णत्ता) आठ सागरोपम की स्थिति लोकान्तिक विमानों में हैं। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि(लोगंतिय विमाणेहिंतो णं भंते ! केवइयं अबाहाए लोगंते पण्णत्ते) हे भदन्त ! लोकान्तिकविमानों से लोकान्त कितनी दूर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम! (असंखेजाइं जोयणसहस्साई अबाहाए लोगंते पण्णत्ते) लोकान्तिक विमानों से लोकान्त असंख्यात हजार પૃથ્વીકાયરૂપે. અષ્કાયિક રૂપે, તેજસ્કાયિકરૂપે, વાયુકારિકરૂપે. વનસ્પતિકાયિક રૂપે, દેવ અને દેવીરૂપે ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યાં છે? ઉત્તર–“હા, ગૌતમ! તેઓ ત્યાં અનેકવાર અથવા અનંતવાર પૃથ્વીકાવિકથી વનસ્પતિકાયિક પર્યન્તનારૂપે ઉત્પન્ન થઈ ચુક્યા છે, પણ તેઓ ત્યાં દેવરૂપે કદી પણ ઉત્પન્ન થયા નથી.” गीतभस्वामीना -" लोगंतियविमाणेसु ण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ?" महन्त ! ति विमान निवासी हेवानी स्थिति सा जनी ही छ ? उत्तर-" गोयमा ! असागरोवमाई ठिई पण्णत्ता" गौतम! તે વિમાને દેવેની સ્થિતિ આઠ સાગરેપમની કહી છે. -" लोगंतिय विमाणेहितो ण भंते ! केवइयं अबाहाए लोगते पण्णते ?" उ महन्त ! सन्ति विमानाथी antra से सतरे छ ? । उत्तर--"गोयमा ! असंखेज्जाइ जोयणसहस्साई अबाहाए लोगंते पण्णते " છે તમ ! કાતિક વિમાનેથી લોકાન્ત અસંખ્યાત હજાર જન ઘર છે. श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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