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भगवतीस्त्र पादितम् तथा तत्र वादरः स्तनितशब्दोऽपि घनगर्जनात्मको भवत्येवेति भावः । गौतमः पृच्छति-'अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु बायरे आउकाए, बायरे अगणिकाए, वायरे वणस्सइकाए ? ' भदन्त ! अस्ति संभवति खलु कृष्णराजिषु बादर अप्कायः, बादरः अग्निकायः, बादरो वनस्पतिकायः ? भगवानाह-'णो इणढे समटे ' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, कृष्णराजिषु बादराः अकायादयो न संभवन्ति, तेषां तत्र स्वस्वस्थनावाभावात् , किन्तु णगत्य विग्गहगइसमावन्नएणं ''न' इतिशब्देन योऽयं कृष्णराजिषु बादराकायादीनां निषेधः कृतः, स विग्रहगतिसमापनकेन अन्यत्र बोद्धव्यः, तत्रापि विग्रहगतिसमापत्या बादराप्कायाउनसे कहते हैं कि (जहा उराला तहा) हे गौतम ! जिस प्रकार से हमने यह कहा है कि इन कृष्णराजियों में उदार मेघों का संस्वेदन आदि कार्य होता है-उसी प्रकार से यह भी समझना चाहिये कि इन कृष्णराजियों में मेघों का गजेनरूप शब्द भी होता है। अब गौतम पूछते हैं (अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु बायरै आउकाए बायरे अगणिकाए, बायरे वणस्सइकाए) हे भदन्त ! कृष्णराजियों में बादर अप्काय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय हैं क्या ? उत्तर में प्रभु कहते हैं कि (णो इणढे समठे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं-अर्थात् कृष्णराजियों में बादर अकाय आदि स्वस्थान का अभाव होने से नहीं हैं। (णण्णत्थ विग्गहगहसमावन्नएणं ) परन्तु ऐसा जो यह निषेध वचन है वह विग्रहगति समापन्न जीवों के सिवाय ही कहा गया जानना चाहिये। क्यों कि विग्रहगलिसमापत्ति से चादर अप्काय आदिकों का
उत्तर- ( जहा उराला तहा ) 3 मौत ! २वी शत ४० मिमी વિશાળ મેઘનું સંદન આદિ કાર્યો થાય છે, એ જ પ્રમાણે કૃષ્ણરાજિઓમાં મેઘાના ગર્જન રૂપ બાદર સ્વનિત શબ્દ પણ થાય છે, એમ સમજવું.
प्रश्न--( अत्थिण भते ! कण्हराईसु बायरे आउकाए, बायरे अगणिकाए, बायरे वणस्सइकाए ?) 3 महन्त ! गुणमिमां शुमा४२ अ५४ाय, माहर અગ્નિકાય અને બાદર વનસ્પતિકાય હોય છે?
उत्तर-( णो इणने समठे) गौतम ! से वात १४५ नथी. अटले કે કૃષ્ણરાજિઓમાં બાદર અપકાય આદિ હોતાં નથી કારણ કે ત્યાં તેમના २१२थाननी समाव डाय छ. (णण्णत्थ विगहगइसमावन्न एण) परन्तु આ નિષેધાત્મક કથન વિગ્રહગતિમાં વર્તમાન જી સિવાયના જીવોને જ લાગુ પડે છે. કારણ કે વિગ્રહગતિમાં વર્તમાન બાદર અકાય આદિનો ત્યાં સદ્ભાવ હોઈ શકે છે.
श्री. भगवती सूत्र:४