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________________ प्रमेraन्द्रिका टीका श० ५ उ० १ सू० ४ लवणसमुद्रवतव्यतानिरूपणम् ९३ धातकीखण्डे द्वीपे ' मंदराणपव्त्रयाणं मन्दराणां पर्वतानाम् ' पुरत्थिमपच्चत्थि मेणं' पौरस्त्य - पश्चिमे खलु ' नत्थि ' नास्ति ' ओसप्पिणी ' अवसर्पिणी 'जाव समणाउसो !' यावत् श्रमणायुष्मन् ! यावत्करणात् -' नास्ति उत्सर्पिणी किन्तु अवस्थितः कालस्तिष्ठति' इति संग्राह्यम् । भगवान् आह - 'हंता गोयमा ! जाब समणाउसो ! ' हे गौतम ! हन्त, वदुक्तं सत्यम् यावत् - श्रमणायुष्मन् ! इत्यन्तम्, यावत्करणात् सर्व संग्राह्यम् । भगवान् अनुक्तस्यापि प्रश्नस्य समाधानमाह जहा लवणसमुहस्स वत्तव्वया ' यथा लवणसमुद्रस्य ' वक्तव्यता उक्ता तहा ' तथा 'कालोदस्स वि भाणियन्त्रा' कालोदस्यापि भणितव्या, किन्तु ' नवरं ' विशेषः 6 94 दीवे ) धातकीखण्डद्वीप में (मंदराणं पव्वययाणं) मन्दरपर्वतों के (पुरथिम पच्चरिथमेण ) पूर्व पश्चिमदिग्भाग में ( नत्थि ओसप्पिणी ) क्या अवसर्पिणी काल नहीं होता है (नत्थि उसप्पिणी) तथा उत्सर्पिणी काल भी नहीं होता है क्या ? भगवान् इसका उत्तर देते हुए गौतम से कह ते हैं (हंतागोमा ) हां गौतम - ऐसा ही है (जाव नत्थि उस्सप्पिणी ) यावत् नास्ति उत्सर्पिणी-वहां अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल नहीं है कि न्तु वहां अवस्थित काल कहा गया है। अब भगवान अनुक्त भी प्रश्न का समाधान करते हैं - ( जहा लवणसमुद्दस्स वत्तव्वया) वे कहते हैं कि हे गौतम! जिस प्रकार की लवणसमुद्र की वक्तव्यता प्रकट की गई है, उसी प्रकारकी (कालोस्स वि भणियन्वा) कालोद समुद्र की वक्तव्यता जान लेनी चाहिये । किन्तु (नवरं ) उक्त वक्तव्यता और इस वक्तव्यता में केवल इतना ही अन्तर है कि जिस प्रकार से लवणसमुद्र की वक्त द्वीपभां " मंदराणं पव्वयाणं " भडर पर्वतीनो “ पुरत्थिम- पच्चत्थिमेणं " पूर्व અને પશ્ચિમ ભાગમાં "after enterfequit after seftquit?" - પિણી કાળ પણ હાતા નથી, અને ઉત્સર્પિણી કાળ પણ હાતા નથી ? उत्तर—“ हता, गोयमा ! " डा, गौतम ! मेवुन जने छे - "जाव नस्थि उस्सप्पिणी” त्यां अवसर्पिए भने उत्सर्पिणी अज होतो नथी ” त्यां सुधीतुं प्रश्न સૂત્રમાં આવતું સમસ્ત કથન મહેણુ કરવું ત્યાં તે સદા સમાન કાળ અવસ્થિતકાળ હાય છે—હવે કેટલાક અનુક્ત ( ન પૂછાયેલા ) પ્રશ્નોનું મહાવીર પ્રભુ નીચે प्रमाणे समाधान उरे छे - ( जहा लवणसमुद्देहस वत्तन्त्रया ) हे गौतम! अवश સમુદ્રના વિષયમાં આગળ જે પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરાયું છે, એજ પ્રકારનું પ્રતિ पान ( कालोस्स भाणियव्वा ) अबोधिना विषयभां या शव लेहा. ( नवर) ते वक्तव्यता भने अलोहधिनी वक्तव्यताभां इस माटो ४ २ श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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