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________________ ५८६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:-पुनराईको मुनिः प्राह-(जे यावि) ये चापि, च शब्दस्त्वर्थे, तथा च ये तु (भिक्खू) भिक्षवः, ये साधुवेषं परिगृह्याऽपि (बीयोदगभोइ) बीजोदकभोजिनो भवन्ति, तथा-(जीवियट्ठी) जीवितार्थिनः-उदरम्भरयः (भिक्खं विहिजायंति) भिक्षाविधिं यान्ति, ये भूत्वाऽपि साधवः बीजकायान् शीतोदकादिकं सेवन्ते तथोदरपोषणाय भिक्षावृत्ति कुर्वन्ति । ते (णाइसंजोगमविप्पहाय) ते पूर्वोक्तकर्मनिरताः स्वकीयज्ञातिबन्धुबान्धवानां कर्मकराः संयोग प्रहायाऽपिपरित्यज्याऽपीति । (कायोवगा) कायोपगाः-स्वदेह वेषपीपणेषु व्यग्रमानसाः (णंतकरा भवंति) नान्तकारा भवन्ति-उदरम्मरयो लोके कर्मणां न विनाशका, भवन्ति अन्तकरा न भवन्तीति ॥१०॥टीका-सुगमा ॥१०॥ मूलम्-इमं वयं तु तुम पाउकुवं पावाइणो गरिहंसि सव्वएव। पावाइणो पुढो किंट्टयंता सयं सयं दिहि करोत पाउं।११। वाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का 'गंतकरा भवंति-नान्त करा भवन्ति' अन्त नहीं कर सकते हैं और न उनके जन्म मरणका ही अन्त आसकता है ॥१०॥ ___ अन्वयार्थ-आद्रक मुनि पुनः कहते हैं-जो भिक्षु होकर भी सचित्त बीज और सचित्त जल का सेवन करते हैं और जीवननिर्वाह के लिए भिक्षावृत्ति करते हैं, वे अपने ज्ञातिजनों, एवं आत्मीय बन्धु वान्धवों के संपर्क को त्याग करके भी अपने काय काही पोषण करने वाले हैं ऐसे भिक्षाजीवी-पेटू अपने कर्मों का अन्त नहीं कर सकते और न उनके जन्म-मरण का ही अन्त आ सकता है॥१०॥टीका सरल है॥१०॥ यष३॥ ४२वावा छे. भाव। लिक्षालवी-पेटम। पोताना भान तकरा भवति-नान्तकरा भवन्ति' मत 3री शतानथी. तथा तभनी म भान। અંત કરી શક્તા નથી. ગા૦૧૦ અન્વયાર્થ–આદ્રક મુનિ ફરીથી કહે છે કે-જે ભિક્ષુક થઈને સચિત્ત બીજ અને સચિત્ત જલનું સેવન કરે છે. અને જીવન નિર્વાહ માટે શિક્ષા વૃત્તિ કરે છે. તેઓ પિતાના જ્ઞાતિજને અને આત્મીય બંધુ બાંધવોના સંપર્કને છેડીને પણ પિતાના શરીરનું જ પિષણ કરવા વાળા છે. એવા ભિક્ષાજવી પેટાશ પોતાના કર્મોને અંત કરી શકતા નથી. તેમજ પિતાના જન્મમરબને પણ અંત કરી શકતા નથી. ૧૦ આ ગાથાને ટીકાર્થ અન્વયાર્થ પ્રમાણે છે. જેથી અલગ આપેલ નથી. श्री सूत्रकृतांग सूत्र : ४
SR No.006308
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages795
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size43 MB
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