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पाथेय
प्राकृत भाषा देव भाषा या दिव्य भाषा है। यह कहना कम मूल्यवान् नहीं होगा कि वह जनभाषा है । वह जन भाषा है इसलिए आज भी जीवित भाषा है । कुछ रूपान्तर के साथ बृहत्तर भारत के बड़े भाग में बोली जाती है । उसका मौलिक रूप आज व्यवहार भाषा का रूप नहीं है फिर भी अनेक भाषाओं और बोलियों का उद्गमस्रोत होने के कारण उसका अध्ययन
और प्रयोग कम अर्थ वाला नहीं है । एक जैन मुनि के लिए उसकी सार्थकता सदैव बनी रहेगी।
___ मुनि विमलकुमारजी अध्ययनशील और रचनाकुशल हैं। कुछ वर्ष पूर्व 'पाइयसंगहो' नामक एक संग्रह ग्रंथ का संपादन किया था। अभी वर्तमान में उनकी दो प्राकृतनिबद्ध कृतियां सामने प्रस्तुत हैं -पाइयपडिबिंबो और पाइयपच्चूसो। प्रस्तुत कृति 'पाइयपडिबिंबो' में तीन काव्य हैंललियंगचरियं, देवदत्ता और सुबाहुचरियं ।
__ भाषा का प्रयोग सहज, सरल और वार्ता-प्रसंग हृदयहारी है । काव्य सौंदर्य के लिए जिस व्यञ्जना की अपेक्षा है, उसकी संपूर्ति नहीं है फिर भी पाठक के मन को आकृष्ट करने वाली सामग्री इसमें अवश्य है । जैन साहित्य की कथाओं के आधार पर लिखित ये प्राकृत काव्य प्राचीन परम्परा की एक कड़ी के रूप में मान्यता प्राप्त करेंगे । मुनिजी ने वर्तमान युग में प्राकृत भाषा में काव्य लिखने का जो साहस किया है, उसके लिए साधुवाद देय है । यश से काव्य लिखा जाता है किन्तु यश से निरपेक्ष होकर केवल अन्तःसुखाय लिखने की प्रवृत्ति बहुत मूल्यवान् है । तेरापंथ धर्मसंघ में आज भी प्राकृत और संस्कृत जीवंत भाषा है । उसके अध्ययन, अध्यापन और रचना का प्रयोग अविच्छिन्न रूप में चालू है । पूज्य कालगणी ने विद्याराधना का जो संकल्प बीज बोया, गुरुदेव श्री तुलसी ने जिसका संवर्धन किया, जो अंकुरण से पुष्पित और फलित अवस्था तक पहुंचा, वह आज और अधिक विकास की दिशाएं खोज रहा है । यह हमारे धर्मसंघ के लिए उल्लासपूर्ण गौरव की बात है । उस गौरव की अनुभूति में मुनि विमलकुमारजी की सहभागिता उपादेय बनी रहेगी। जैन विश्व भारती
आचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राजस्थान) ७ अप्रैल, १९९६