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ललियगचरियं
८०. चिरकाल से अपने पुत्र को देखकर राजा का मन बहुत गद्गद् हुआ।
जो व्यक्ति अपने प्रिय जन को पाकर प्रसन्न नहीं होता वह प्रियजन नहीं
८१. पुत्र को अपने नगर में लाकर राजा प्रसन्न हुआ । उससे सब घटना
सुनकर वह शीघ्र धर्म में रत हो गया। ८२. ललितांगकुमार को राज्य देकर उसने शीघ्र दीक्षा ग्रहण कर ली।
मनुष्य-जीवन का यही सार है कि त्याग-मार्ग में गति हो । ८३. दोनों राज्यों को पाकर भी राजा ललितांग अभिमान नहीं करता है।
इस संसार में अभिमान-योग्य कुछ भी नहीं है, फिर भी मूढ व्यक्ति
अभिमान करता है, यह आश्चर्य है। ८४. राजा ललितांग मनुष्यों को धार्मिक बनाने की चेष्टा करता है। जो
जैसा होता है वह दूसरों को वैसा करने का प्रयत्न करता है। ८५. राजा को धर्म में रत देखकर मनुष्य भी धर्माभिमुख हो गये। संसार में
जैसा राजा होता है प्रजा भी तब वैसी ही होती है।
८६. इस प्रकार मनुष्यों को धार्मिक बनाकर वह सुखपूर्वक उनका पालन
करता है । अन्त में वैराग्यभाव को प्राप्त कर वह दीक्षा ग्रहण करता
८७. जो व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करके भी शुद्ध भाव से उसका पालन नहीं
करता तो आश्चर्य है दीक्षा भी उसके लिए अधोगति का हेतु बनती है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है ।
८८. उसने सदा शुद्ध चरित्र का पालन किया । अन्त में पंडित मरण प्राप्त
कर, इस मनुष्य- देह को छोड़कर वह पवित्र भावों के कारण स्वर्ग में
उत्पन्न हुआ। ८९. वहां से आयुष्य पूर्ण कर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर, सब कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करेगा।
चतुर्थ सर्ग समाप्त विमलमुनिविरचित पद्यप्रबंधललितांगचरित्र समाप्त