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सुबाहुचरियं ३३. मनुष्य-जन्म को प्राप्त कर जो व्यक्ति सदा भोगों में रमण करता है वह
धन्य नहीं है । धन्य वह है जो त्यागपथ पर चलता है। ३४. मैं संयम-जीवन चाहता हूं। तुम लोग भी संयम-जीवन को ग्रहण करो।
वही स्त्री सुस्त्री है जो सदा पति का अनुगमन करती है।
३५. उसके इस वचन को सुनकर उन्होंने कहा- तुम अभी शक्तिशाली हो ।
हम अन्य व्रत का आचरण कर सकती हैं किन्तु त्याग-मार्ग (संयम-मार्ग)
पर जाने में समर्थ नहीं हैं। ३६. तुम संयम-जीवन को स्वीकार करो। हम सबकी आज्ञा है। पत्नियों की
आज्ञा लेकर सुबाहुकुमार माता-पिता के समीप आया। ३७. राजा ने उसका दीक्षा-महोत्सव उत्साहपूर्वक किया। तत्पश्चात् वह पुत्र
सहित भगवान् के पास आकर इस प्रकार बोला३८. भंते ! मेरा यह प्रिय पुत्र है। इसका हृदय संसाररूपी दावाग्नि से
दग्ध है। ४९. वह संयमरूपी राज्य को चाहता है, मेरे इस राज्य को नहीं । वह मुक्ति
स्त्री की वांछा करता है, अन्य स्त्रियों की नहीं। ४०. दीक्षा देकर उसकी भावना को सफल करें, यह मेरा निवेदन है। राजा
के वचन को सुनकर भगवान् महावीर ने सुबाहुकुमार को दीक्षा प्रदान
की। ४१. प्रव्रज्या प्रदान कर भगवान् ने सुबाहुकुमार को यह सुन्दर शिक्षा दी
तुम यत्नपूर्वक ठहरो, बैठो, चलो, खाओ और बोलो। ४२. दीक्षा देखकर सभी मनुष्य त्याग की प्रशंसा कर और सुबाहुकुमार को
भक्तिपूर्वक नमस्कार करके अपने घर चले गये। ४३. मुनि सुबाहुकुमार साधुओं के समीप बारह अंगों का अध्ययन करता
है। वह दांत और शांत-चित्त होकर शुद्ध भावों से प्रव्रज्या का पालन
करता है। ४४. अन्तिम समय में संलेखना कर उसने आलोचना की और शुद्ध होकर,
मृत्यु का वरण कर वह सौधर्मकल्प में देव हुआ।