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सुबाहुचरियं
१२५ २३. जिस प्रकार उर्वर भूमि में क्षिप्त बीज व्यर्थ नहीं होता उसी प्रकार
दिया हुआ पात्रदान भी निष्फल नहीं होता। २४. सुबाहुकुमार के पूर्वभव को सुनकर गौतम स्वामी ने पुनः भगवान्
महावीर को इस प्रकार पूछा--- २५. क्या यह आपके समीप में दीक्षा ग्रहण करेगा। भगवान् ने प्रत्युत्तर में
कहा- हां। २६. भक्त लोग भगवान् के प्रवचन का प्रतिदिन लाभ लेते हैं। घर में आई
हुई गंगा में कौन स्नान करना नहीं चाहता ? २७. कुछ दिन ठहर कर भगवान् अन्यत्र चले गये । क्योंकि मुनि गण विना
कारण एक स्थान में नहीं रहते हैं। २८. श्रद्धालुओं के लिए उनका विरह दुस्सह हो गया। उन्होंने भगवान् को
कहा-यहां हमें पुनः दर्शन दीजिएगा।
२९-३०. तुम लोग धर्म में श्रद्धा रखना। उसका सदा आचरण करना ।
धर्म ही मनुष्य का प्राण है । संसार में अन्य कोई भी त्राण नहीं है । इस प्रकार भक्त जनों को धर्मोपदेश देकर भगवान् अन्यत्र चले गये । वे भक्तों के प्रति निष्कारण वत्सल थे।
द्वितीय सर्ग समाप्त