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________________ जीव अजीव G૬૬ २. कई जीव और अजीव इन दो पदार्थों के अतिरिक्त अवशेष सप्त पदार्थों को जीव अजीव दोनों मानते हैं। जो मूढ़ ऐसी विपरीत श्रद्धान रखते हैं, उन्होंने साधु-वेष ग्रहण कर आत्मा को डूबा दिया। सात पदार्थों का जीवाजीव मानना मिथ्यात्व है ३. पुण्य, पाप और बंध-ये तीनों कर्म हैं। कर्मों को निश्चय ही पुद्गल जानो। जो पुद्गल हैं, वे निश्चय ही अजीव हैं। इसमें जरा भी. शङ्का मत करो। पुण्य, पाप, बंध तीनों अजीव हैं (गा० ३-४) ४. जिन भगवान ने आठ कर्मों को रूपी कहा है। उनमें पाँचों वर्ण, दो गन्ध, पाँचों रस और चार स्पर्श हैं। ये सोलह बोल जिसमें हैं, वह पुद्गल अजीव है। आस्रव जीव है (गा०५-६) ५. पुण्य-पाप दोनों को आस्रव ग्रहण करता है। जो पुण्य और पाप को ग्रहण करता है, उसे निश्चय ही जीव जानो। जीव निरवद्य योगों से पुण्य को ग्रहण करता है और सावध योगों से उसके पाप लगते हैं। ६. आस्रव कर्मों के द्वार हैं। वे जीव के भाव हैं। आस्रव के बीसों बोलों की पहचान करो। बीसों ही आस्रव कर्मों के कर्ता हैं। जो कर्मों के कर्ता हैं, उन्हें निश्चय से जीव जानो। आत्मा को वश में करना संवर है। जो आत्मा को वश संवर जीव है करता है, वह निश्चय ही जीव है। संवर उपशम, क्षायक . (गा० ७-८) क्षयोपशम भाव है। ये जीव के ही अति निर्मल भाव हैं। ८. संवर आते हुए कर्मों को रोकता है। जो आते हुए कर्मों को रोकता है, वह निश्चय ही जीव है। जो अज्ञानी संवर को जीव नहीं मानता, उसके नरक-निगोद की नींव लग चुकी।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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