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________________ नव पदार्थ नीचे इन पर क्रमशः प्रकाश डाला जायेगा। १. कर्मों के देश-क्षय से आत्मा का देशरूप उज्ज्वल होना निर्जरा है। जिससे ऐसा होता है, वह निर्जरा की करनी है। निर्जरा आत्म-प्रदेशों की उज्ज्वलता है। इस अपेक्षा वह निरवद्य है। निर्जरा की करनी शुभ योगरूप होने से निर्मल होती है। अतः वह निरवद्य है। २. निर्जरा मोक्ष का अंश किस प्रकार है, इस पर कुछ प्रकाश पूर्व में डाला जा चुका है। "धर्म हेतुक निर्जरा नव तत्त्वों में सातवाँ तत्त्व है। मोक्ष उसी का उत्कृष्ट रूप है। कर्म की पूर्ण निर्जरा (विलय) जो है, वही मोक्ष है। कर्म का अपूर्ण विलय निर्जरा है। दोनों में मात्रा भेद है, स्वरूप भेद नहीं'।" जैसे जल की एक बून्द समुद्र का ही अंश होती है, वैसे ही निर्जरा भी मोक्ष का अंश है। अन्तर एक देश और पूर्णता का है। अकृत्स्न कर्म-क्षय निर्जरा है और कृत्स्न ' कर्मक्षय मोक्ष। • ३. निर्जरा पुराने कर्मों को दूर करती है पर उससे कर्मों का अन्त तभी आ सकता है जब नये कर्मों का संचय न किया जाय। जब तक नये कर्मों का संचार होता रहता है पुराने कर्मों का क्षय होने पर भी कर्मों का अन्त नहीं आता। जिस तरह कर्ज उतारने की विधि यह है कि नया कर्ज न किया जाय और पुराना चुकाया जाय। उसी प्रकार कर्म से निवृत्त होने की प्रक्रिया यह है कि नये कर्मों के आगमन को रोका जाय और पुराने कर्मों का क्षय किया जाय। इस विधि से ही जीव कर्मों से मुक्त हो सकता है। उत्तराध्ययन में इसी विधि का उल्लेख तालाब के उदाहरण द्वारा किया गया है। वहाँ कहा है-"प्राणिवध, मृषावाद, चोरी, मैथुन और परिग्रह तथा रात्रिभोजन से विरत जीव अनास्रव-नये कर्म-प्रवेश से रहित हो जाता है। जो जीव पाँच समितियों से संवृत्त, तीन गुप्तियों से गुप्त, चार कषायों से रहित, जितेन्द्रिय तथा तीन प्रकार के गर्व और तीन प्रकार के शल्य से रहित होता है, वह अनास्रव-नये कर्म-संचय से रहित होता है। जिस तरह जल आने के मार्ग को रोक देने पर बड़ा तालाब पानी के उलीचे जाने और सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, उसी तरह आस्रव-पाप कर्म के प्रवेश-मार्गों को रोक देनेवाले संयमी पुरुष के करोड़ों भवों के संचित कर्म तप के द्वारा जीर्ण होकर झड़ जाते हैं। १. जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व पृ० १४७ २. तत्त्वा० १.४ सर्वार्थसिद्धि : एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा, कृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्षः ३. उत्त० ३०, २-३. ५-६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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