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________________ ६८८ नव पदार्थ संवर सूं जीवा रा प्रदेस बंध हुवे , जोग सूं जीव रा प्रदेस री हुवें छे छूट | या दोयां में एक सर छ अग्यांनी, ते निश्चेंइ नेमा (नियमा) छे हीया फूट' ।। ४. तप की महिमा : "तपसा निर्जरा च" इस सूत्र की टीका में टीकाकारों ने एक महत्त्वपूर्ण शंकासमाधान किया है। प्रश्न है-तप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट है, क्योंकि वह देवेन्द्र आदि स्थान विशेष की प्राप्ति का हेतु स्वीकार किया गया है। वह निर्जरा का हेतु कैसे हो सकता है ? आचार्य पूज्यवाद कहते हैं-"जैसे अग्नि एक है तो उसके विक्लेदन, भस्म और अङ्गडार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं, वैसे ही तप को अभ्युदय और कर्म-क्षय दोनों का हेतु मानने में कोई विरोध नहीं है।" इस बात को श्री अकलङ्क देव ने बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया है। वे कहते हैं-"जैसे किसान को खेती से अभीष्ट धान्य के साथ-साथ पयाल भी निलता हैं, उसी तरह तप-क्रिया का प्रयोजन कर्मक्षय ही है। अभ्युदय की प्राप्ति को पयाल की तरह आनुषंगिक है।" स्वामीजी ने कहा है : "गोहूं नीपावे छे गोहां के कारणे, पिग खाखला री नहीं चावो रे। तो पिण साथे खाखलो नींपजे छ, बुधवंत समझों इन न्यावो रे ।। ज्यूं करणी करें निरजरा रे काजें, पिण पुन तणी नहीं चावो रे । पिण पुन नीपजें , निरजरा करता, खाखला ने गोहां रे न्यावो रे ।।" १. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (ख० १) : टीकम डोसी री चौपई ढा० ५ गा० १४-१७ २. तत्त्वा० ६.२ सर्वार्थसिद्धि : ननु च तपोऽभ्युदयाङ्गमिष्टं देवेन्द्रादिस्थानप्राप्तिहेतुत्वाभ्युपगमात्, तत् कथं निर्जराङ्गं स्यादिति ? नैष दोषः, एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत्। यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेदन भस्मांगरादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः । ३. तत्त्वा० ६.३ राजवार्तिक ५ : गुणप्रधानफलोपपत्तेर्वा कृषीवलवत् । अथवा, यथा कृषीवलस्य कृषिक्रियायाः पलालशष्यफलगुणप्रधानफलाभिसम्बन्धः तथा मुनेरपि तपस्क्रियायां प्रधानोपसर्जनाभ्युदयनिःश्रेयसफलाभि सम्बन्धोऽभिसन्धिवशाद्वेदितव्यः।। ४. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खण्ड १) : टीकम डोसी री चौपई ढा० ३६-३७
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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