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________________ ૬૭૦ नव पदार्थ और (४) धर्मकथा'। धर्म ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं : (१) अनित्य अनुप्रेक्षा' (२) अशरण अनुप्रेक्षा (३) एकत्व अनुप्रेक्षा' और (४) संसार अनुप्रेक्षा'। ४. शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है : (१) पृथक्त्ववितर्क सविचारी" (२) एकत्ववितर्क अविचारी (३) सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति और (४) समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती | शुक्ल ध्यान के चार लक्षण" कहे गये हैं : (१) विवेक (२) व्युत्सर्गः (३) अव्यथा और (४) असंमोह। १. ठाणाङ्ग सूत्र में 'धर्मकथा' के स्थान पर 'अणुप्पेहा (अनुप्रेक्षा) शब्द है। इसका अर्थ है गहरा चिन्तन। २. संपत्ति आदि सर्व वस्तुएँ अनित्य हैं-ऐसी भावना या चिन्तन। ३. दुःख से मुक्त करने के लिए धर्म के सिवा कोई शरण नहीं-ऐसी भावना। ४. मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं इत्यादि चिन्तन। ५. संसार जरा-मरणादि स्वरूपवााला है आदि चिन्तन। ६. जिसकी इन्द्रियाँ विषयों से सर्वथा पराङ्मुख होती हैं, संकल्प-विकल्प का विकार जिसे नहीं सताता, जिसके तीनों योग वश में हो चुके हों और जो सम्पूर्ण रूप से अन्तरात्मा होता है उसका सर्वोत्तम स्वच्छ ध्यान शुक्ल ध्यान कहलाता है। ७. एक द्रव्य के आश्रित नाना पर्यायों का श्रुत (शास्त्र) के अवलम्बन से भिन्न-भिन्न विचार करना। ८. उत्पाद आदि पर्यायों में किसी एक पर्याय को अभेदरूप से लेकर श्रुत के आलंबन से अर्थ और शब्द के विचार से रहित चिन्तन। - ६. उस वक्त का ध्यान जब मन-वचन-योग रोका जा चुका हो, पर काययोग-उच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रियाओं से निवृत्ति न हो पाई हो। यह चौदहवें गुणस्थान में योग निरोध करते समय केवली के होता है। १०. जिस समय समस्त क्रियाओं का उच्छेद हो जाता है उस समय का अनुपरति स्वभाववाला ध्यान। ११. भगवती सूत्र (२५.७) में इन्हें शुक्ल ध्यान का अवलंबन कहा गया है। १२. शरीर से आत्मा की भिन्नता का विवेक। १३. निःसङ्गता-देह और उपधि का निःसंकोच त्याग। १४. व्यथा या भय का अभाव। १५. विषयों में मूढ़ता-संमोहन का अभाव।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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