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नव पदार्थ
१५. ध्यान तप (गा० ४०) :
ध्यान' तप चार प्रकार का कहा गया है : (१) आर्त ध्यान (२) रौद्र ध्यान (३) धर्म ध्यान और (४) शुक्ल ध्यान ।
१. आर्त ध्यान' चार प्रकार का होता है : (१) अमनोज्ञ-सम्प्रयोग से सम्प्रयुक्त होने पर उसके विप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना (२) मनोज्ञ-सम्प्रयोग से सम्प्रयुक्त होने पर उसके अविप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना' (३) आतंक-सम्प्रयोग से सम्प्रयुक्त होने पर उसके विप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना (४) भोग में प्रीति-कारक कामभोगों के सम्प्रयोग से सम्प्रयुक्त होने पर उनके अविप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना।
आर्त ध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं : (१) क्रन्दन, (२) सोच-फिक्र-दीनता, (३) तेपनता-अश्रु बहाना और (४) विलपनता बार-बार क्लेशयुक्त बात कहना।
२. रौद्र ध्यान चार प्रकार का कहा गया है : (१) हिंसानुबंधी' (२) मृषानुबंधी
१. स्थिर अध्यवसान को ध्यान कहते हैं। चित्त चल है, इसका किसी एक बात में स्थिर
हो जाना ध्यान है (जं थिरमज्जवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं)। एकाग्र चिन्ता
निरोध ध्यान है (ठाणाङ्ग ५.३.५११ की टीका)। २. भोग-उपभोग में मोहवश अति इच्छा-अभिलाषा का होना आर्त ध्यान है। ३. इसका अर्थ है अरुचिकर संयोग से संयुक्त होने पर उसका वियोग हो जाय, इस
कामना से निरन्तर ग्रस्त रहना। ४. इसका अर्थ है रुचिकर संयोग से संयुक्त होने पर उसका वियोग न हो जाय, इस
कामना से निरन्तर ग्रस्त रहना। ५. भगवती सूत्र (२५.७) मे 'विलवणया'-विलपना (औप० सम० २०) के स्थान में
'परिदेवणया’-परिदेवना शब्द है। इसका अर्थ है बार-बार क्लेश उत्पन्न करनेवाली
भाषा का बोलना। ठाणाङ्ग (४.१.२४७) में भी 'परिदेवणया' ही मिलता है। ६. आत्मा का हिंसा आदि रौद्र-भयानक भावों में परिणत होना रौद्र ध्यान है। जिसका
छेदन-भेदन-मारण आदि क्रूर भावों में राग होता है उसके रौद्र ध्यान कहा जाता है। ७. दूसरों को मारने-पीटने, काटने-बाढ़ने की भावना करते रहने को हिंसानुबंधी रौद्र
ध्यान कहते हैं। ८. झूठ बोलने की भावना करते रहना मृषानुबंधी रौद्र ध्यान है।