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नव पदार्थ
१४. स्वाध्याय तप (गा० ३९) :
स्वाध्याय' पाँच प्रकार का कहा गया है : (१) वाचना' (२) प्रच्छना (३) परिवर्तना
१. उत्तम मर्यादापूर्वक अध्ययन-श्रुत के विशेष अनुसरण को स्वाध्याय कहते हैं। नन्दि
आदि सूत्र विषयक वाचना को स्वाध्याय कहते हैं। ___ठाणाङ्ग के अनुसार चार महा प्रतिज्ञ-आषाढ़ की पूर्णिमा के बाद की प्रतिपदा-इदंमहप्रतिपदा, कार्तिक की प्रतिपदा और चैत्र प्रतिपदा- में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता (४.२.२८५)।
इसी तरह ठाणाङ्ग में पहली संध्या, पश्चिमा संध्या, मध्याह्न और अर्द्धरात्रि में स्वाध्याय करना अकल्पनीय बताया गया है तथा पूर्वाह्न, अपरांन, प्रदोष और प्रत्युष में स्वाध्याय करना कल्पनीय बताया है। पहली संध्या-सूर्योदय के पहले, पश्चिमासंध्या-सूर्यास्त के समय, पूर्वाह्न-दिन का प्रथम प्रहर और अपराहन-दिन का द्वितीय प्रहर। प्रदोष-रात्रि का प्रथम प्रहर और प्रत्युष-रात्रि का अन्तिम प्रहर (४.२.२८५)
अकाल में स्वाध्याय करना असमाधि के बीस स्थानों में एक स्थान कहा गया है (समवायाङ्ग सम. २०)। अकाल स्वाध्याय के दोष इस प्रकार बताये गये हैं :
सुयणाणंमि अभत्ती लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य ।
विज्जासाहणवेगुन्नधम्मया एव मा कुणसु।। २. वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा शब्दों का अर्थ क्रमशः इस प्रकार है-अध्ययन, पूछना, आवृत्ति, सूत्र और अर्थ का बार-बार चिंतन-मनन तथा व्याख्यान।
इन सबका परस्पर सम्बन्ध इस प्रकार है : पढ़ाने के लिए कहने पर शिष्य के प्रति गुरु का प्रयोजक भाव अर्थात् पाठ धराना वाचना है। वाचना ग्रहण करने के बाद संशयादि उत्पन्न होने पर पुनः पूछना अर्थात् पूर्व अधीत सूत्रादि में शंका होने पर प्रश्न करना प्रच्छना कहलाता है। प्रच्छना से विशोधित सूत्र कहीं फिर न भूल जाय, इस हेतु से सूत्र का बार-बार अभ्यास-गुणन करना परिवर्तना कहलाती है। सूत्र की तरह ही अर्थ के विषय में विस्मृति का होना संभव होने से अर्थ का बार-बार अनुप्रेक्षा-चिन्तन अनुप्रेक्षा कहलाता है। हरिभद्रसूरि के अनुसार मन से गुणन करने को अनुप्रेक्षा कहते हैं-वाचा से नहीं। इस प्रकार अभ्यास किये हुए श्रुत द्वारा धर्म-कथा कहना-श्रुतधर्म की व्याख्या करना धर्मकथा है (ठाणाङ्ग २.१.६५ की टीका)। हरिभद्रसूरि के अनुसार सर्वज्ञप्रणीत अहिंसादि लक्षणरूप धर्म का अनुयोग-कथन धर्मकथा है (दश. १.१ की टीका)।