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________________ ६५४ नव पदार्थ __४. विविक्तसयनासनसेवनता आराम, उद्यान, देवकुल, सभा, पौ, प्रणीतगृह, प्रणीतशाला, स्त्री-पशु-नपुंसक के संसर्ग से रहित बस्ती में प्रासुक एषणीय पीठ,फलक,शय्या और संस्तारक को प्राप्त कर रहना विविक्तसयनासनसेवनता तप है। उत्तराध्ययन में कहा है: "एकांत में जहाँ स्त्रियों आदि का अतिपात न होता हो वहाँ तथा स्त्री-पशु से विवर्जित-रहित शयन, आसन का सेवन विविक्तशयनासनसेवनता कहलाता है।" १०. बाह्य और आभ्यन्तर तप (गा० २१): __ऊपर में जिन छह तपों का वर्णन आया है, स्वामीजी ने उन्हें बाह्य तप कहा है। आगे जिन छह तपों का वर्णन करने जा रहे हैं उन्हें स्वामीजी ने आभ्यन्तर तप कहा है। उत्तराध्ययन में कहा है-"तप दो प्रकार का होता है। एक बाह्य तप और दूसरा आभ्यन्तर | बाह्य तप छह प्रकार का है वैसे ही आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है। अनशन, अवमोदरिका, भिक्षाचर्या,रसत्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता-ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-ये छह आभ्यन्तर तप हैं।" स्वामीजी का विवेचन इसी क्रम से चल रहा है। बाह्य तप और आभ्यन्तर तप की अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं (१) जो तप मुख्य रूप से बाह्य शरीर का शोषण करते हुए कर्मक्षय करता है, वह बाह्य तप कहलाता है और जो मुख्य रूप से अन्तरवृत्तियों को परिशुद्ध करता हुआ १. उत्त० ३०.२८ : एगंतमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं ।। वही : ३०.७-८, ३० : सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भन्तरो तहा। बाहिरो छविहो वुत्तो ऐपमभन्तरो तवो।। अणसणमूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ।। पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विओसग्गो एसो अभिन्तरो तवो।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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