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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ७
(४) अवश्रावणगत सिक्थभोजन पकाये पदार्थों से दूर किये गये जल में आये सिक्थों का भोजन ।
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(५) अरसाहार - हिंगादि व्यंजनों से असंस्कृत आहार का सेवन ।
(६) विरसाहार - विगतरस - पुराने धान्य ओदनादि आहार का सेवन ।
(७) अन्त आहार' - घरवालों के भोजनोपरान्त अवशेष रहे आहार का सेवन । (८) प्रान्त्य आहार - घरवालों के खा चुकने के बाद बचे-खुचे अत्यन्त अवशेष आहार का सेवन ।
(६) लूक्षाहार - रूखे आहार का सेवन ।
वाचक उमास्वाति ने रस- परित्याग तप की परिभाषा देते हुए कहा है- "मद्य, मांस, मधु और नवनीत आदि जो-जो रसविकृतियाँ हैं, उनका प्रत्याख्यान तथा विरस - रूक्ष आदि का अभिग्रह रसपरित्याग तप है ।"
आचार्य पूज्यपाद कहते हैं- "घृतादि वृष्य-गरिष्ठ रसों का परित्याग करना रस-परित्याग तप है। *
कहीं-कहीं षट्स के त्याग को ही रस परित्याग तप कहा है । षट्-रस का अर्थ दो प्रकार से किया जाता है। कहीं घृत, दूध, दही, शक्कर, तेल और नमक को षट्-रस कहा है और कहीं मधुर, अम्ल, कटु, कषाय, लवण और तिक्त इन छह स्वादों को ।
१.
(क) अन्तेभवम् अन्त्यं जघन्यधान्यं वल्लादि ( औपपातिक सम० ३० टीका) (ख) अन्ते भवम् आन्तं भुक्तावशेषं वल्लादि (ठाणाङ्ग ५.१.३६६ टीका)
२.
(क) प्रकर्षण अन्त्यं वल्लादि एवं भुक्तावशेषं पर्युषितं वा ( औप० सम० ३० टीका) (ख) प्रकृष्टं अन्तं प्रान्तं - तदेव पर्युषितं (ठाणाङ्ग ५.१.३६६ टीका )
३. कहीं-कहीं तुच्छाहार मिलता है। तुच्छ - अल्प सारवाला
४. तत्त्वा० ६.१६ भाष्य ४ :
रसपरित्यागोऽनेकविधः। तद्यथा - मांसमधुनवनीतादीनां मद्यरसविकृतीनांप्रत्याख्यानं विरस
क्षाद्यभिग्रहश्च
तत्त्वा० ६.१६ सर्वार्थसिद्धि :
घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थतपः
नवतत्त्वस्तवन (श्री विवेकविजय विरचित) : ८ षट् रसनों करे त्याग, ए चोथो लह्यो सोभागी ।।
६.