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________________ ६३२ नव पदार्थ साधारण नियम ऐसा है कि मारणांतिक अनशन संलेषनापूर्वक किया जाना चाहिए-अर्थात् शरीर और कषायों की यथाविधि तप से संलेशना करते-उन्हें क्षीण करते हुए बाद में यथासमय यावज्जीवन आहार का त्याग करना चाहिए अन्यथा आर्तध्यान की संभावना रहती है। पर कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं कि संलेषना का अवसर ही नहीं रहता। सिहं, दावानल, भूकम्प आदि ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित हो जाती हैं कि तुरन्त ही समाधिमरण करने की आवश्यकता हो जाती है। ऐसे समय में जब अचानक काल समीप दिखाई देने लगता है उस समय जो मारणांतिक अनशन किया जाता है, वह व्याघात कहलाता है। सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ-तीनों जाननेवाला मुमुक्षु परिकर्म-संलेषनात्मक तप कर यथासमय जो मारणांतिक अनशन करता है, वह निर्व्याघात कहा गया है। अनशन के व्याघात और निर्व्याघात भेदों को सपरिकर्म और अपरिकर्म शब्दों के द्वारा भी व्यक्त किया गया है। यथा अहवा सपरिकम्मा अपरिकम्मा य आहिया। नीहारिमनिहारी आहारच्छेओ दोसु वि।। सपरिकर्म का अर्थ है जो संलेषनापूर्वक किया जाय (संलेषना सा यन्नाऽस्ति तत् सपरिकम)। अपरिकर्म का अर्थ है जो संलेषना बिना किया जाय (तद्विपरीतं त अपरिकम)। इस तरह स्पष्ट है कि व्याघात-निर्व्याघात और अपरिकर्म-सपरिकर्म शब्द पर्याय-वाची हैं। निर्व्याघात पादोपगमन अनशन की अविधि को बतलानेवाली १६ गाथाएँ ठाणाङ्ग (२.४.१०२) की टीका में उद्धृत मिलती हैं। निर्हारिम और अनिर्झरिम भेद : पादोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान अनशन अन्य तरह से भी दो-दो प्रकार के होते हैं : (१) निर्हारिम और (२) अनि रिम । १. उत्त० ३०.१३ की श्री नेमिचन्द्राचार्य कृत टीका : व्याघाते संलेखनामविधायैव क्रियेतेभक्तप्रत्याख्यानादि २. वही : अव्याघाते त्रयमप्येत्सूत्रार्थोभयनिष्ठतो निष्पादितशिष्यः संलेखनापूर्वकमेव विधत्ते। ३. उत्त० ३०.१३ ४. (क) भगवती : २५.७ (ख) ठाणाङ्ग २.४.१०२
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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