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संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ६
सूक्ष्मसंपराय-ये चार चारित्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव हैं अतः क्षयोपशमिक
स्वामीजी ने गा० १६-२० में सामायिक चारित्र की उत्पत्ति का क्रम बड़े सुन्दर ढंग से उपस्थित किया है। संक्षेप में वह इस प्रकार है :
१. चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम से वैराग्य उत्पन्न होता है। २. वैराग्योत्पत्ति से जीव काम-भोगों से विरक्त होता है।
३. काम-भोगों से विरक्त होने पर वह सावद्य कार्यों का त्याग-प्रत्याख्यान कर देता है।
४. सर्व सावद्य कार्यों के सर्वथा त्याग से सर्व विरति संवर होता है। यही सामायिक चारित्र है। सामायिक चारत्रि में सर्व सावध योगों का त्याग होने से सर्वविरत साधु के अविरति के पाप सर्वथा नहीं लगते । सामायिक चारित्र एकान्त गुणमय होता है। ९. औपशमिक चारित्र (गा० २१-२३) :
सर्व सावद्य योगों का त्याग कर सामायिक चारित्र ग्रहण कर लेने पर अविरति आस्रव का सर्वथा अभाव हो जाता है। पर मोहकर्म का उदय नहीं मिटता। अविरति के कर्म नहीं लगने पर भी मोहकर्म के उदय से सामायिक चारित्रवालों द्वारा भी ऐसे कर्तव्य हो जाते हैं जिनसे उनके पाप कर्म लगते रहते हैं। शुभ ध्यान और शुभ लेश्या से मोहकर्म का उदय घटता है तब उदयजनित सावद्य कर्तव्य भी कम हो जाते हैं। वैसी हालत में उदय के कर्तव्यों के पाप भी कम लगते हैं। इस तरह मोहकर्म का उदय कम होते २ उसका सम्पूर्ण उपशम हो जाता है तब औपशमिक चारित्र उत्पन्न होता है। इसी कारण कहा है-सम्यक्त्व और चारित्र-ये दो औपशमिक भाव हैं। मोहकर्म के उपशम से जीव निर्मल तथा शीतल हो जाता है और उसके पापकर्म नहीं लगते।
१. झीणी चर्चा १६.१६ :
मोह कर्म क्षयोपशम थकी लहै रे, देशवरत चिहूं चारित्र देख रे।
ए पाँचूई निरवद्य करणी लेखै कह्या रे, त्रिदृष्टी उज्वल निरवद्य लेख रे।। २. (क) तत्त्वा० २.३ भाष्य :
सम्यक्त्वं चारित्रं च द्वावौपशमिको भावौ भवत इति। (ख) झीणी चर्चा १६.१० :
उपशम मोहकर्म पुद्गल छ रे, उपशम निपन्न जीव पवित्र रे। उपशम निपन्न रा दोय भेद छ, उपशम समकित उपशम चारित्र रे।।