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नव पदार्थ
(३७) अरति परीषह : कष्ट पड़ने पर संयम के प्रति अरुचि को उत्पन्न न होने देना।
(३८) स्त्री परीषह : स्त्री के लुभाने पर भी समभावपूर्वक रहना-मोहित न होना। (३६) चर्या परीषह : ग्रामानुग्राम विचरने की मुनि-चर्या से विचलित न होना।
(४०) नैषेधिकी परीषह : स्वाध्याय के लिए किसी स्थान में रहते समय उपसर्ग होने पर उसे समभावपूर्वक सहन करना; जैसे-दूसरे को त्रास न पहुँचना और स्वयं शंकाभीत हो वहाँ से अन्य स्थान में न जाना।
(४१) शय्या परीषह : वास-स्थान अथवा शय्या न मिलने अथवा कष्टकारी मिलने पर समभाव रखना; जैसे-उच्चावच शय्या के कारण स्वाध्याय आदि के समय का उल्लंघन न करना।
(४२) आक्रोश परीषह : दुष्ट वचनों के सम्मुख समभाव रखना; जैसे-किसी के आक्रोश करने पर क्रोध न करना।
(४३) वध परीषह : वध-कष्ट उपस्थित होने पर समभाव रखना; जैसे-किसी के पीटने पर भी मन में द्वेष न कर तितिक्षा-भाव रखना।
(४४) याचना परीषह : याचना करने की क्रिया से दुःख-बोध नहीं करना; जैसे-यह न सोचना कि हाथ पसारने की अपेक्षा तो घर में ही रहना अच्छा।
(४५) अलाभ परीषह : आहारादि न मिलने अथवा अनुकूल न मिलने पर मन में कष्ट न होने देना।
(४६) रोग परीषह : रोग होने पर व्याकुल न होना। (४७) तृणस्पर्श परीषह : तृण पर सोने से उत्पन्न वेदना से अविचलित रहना। (४८) जल्ल परीषह : पसीने और मैल के कष्टों से न घबड़ाना।
(४६) सत्कार-पुरस्कार परीषह : किसी द्वारा सत्कारित किए जाने पर उत्कर्ष का अनुभव न करना। इसका लक्षण उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार दिया है-दूसरे के सत्कार-सम्मानादि को देखकर वैसे सत्कार-सम्मानादि की कामना न करना।
(५०) प्रज्ञा-परीषह : अपने में प्रज्ञा की कमी देखकर खेदखिन्न न होना।
१. नवतत्त्वसात्यिसंग्रह : अव० वृत्त्यादिसमेतं नवतत्त्वप्रकरणम् : १८ :
बहुलोकनरेश्वरादिकृतस्तुतिवंदनादेः चित्तोन्मादो न कार्यः, उत्कर्षो मनसि न कार्यः ।