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________________ ५२० नव पदार्थ दस धर्मों का उल्लेख ठाणाङ्ग में भी है;-दसविहे समणधम्मे प० तं. खंती मुत्ती अज्जवे मद्दवे लाघवे सच्चे संजमे तवे चिताते बंभचेरवासे (ठा० १० १७१२) । यहाँ 'शौच' और 'आकिञ्चन्य' के बदले 'मुक्ति' और 'लाधव' मिलता है। दस धर्मों में उत्तम सत्य की परिभाषा सत्य बोलना की गयी है। यहाँ प्रवृत्ति को संयम कहा गया है। स्वामीजी के अनुसार शुभ योग संवर नहीं हो सकता। प्रवृत्तिपरक अन्य धर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात समझ लेनी आवश्यक है। ४. बारह अनुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षा भावना को कहते हैं। बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। बारह अनुप्रेक्षाओं का विवरण इस प्रकार है : (१६) अनित्य अनुप्रेक्षा : शरीर आदि सर्व पदार्थ और संयोग अनित्य हैं-ऐसा पुनःपुनः चिन्तन। (२०) अशरण अनुप्रेक्षा : जन्म, जरा, मरण, व्याधि आदि से ग्रस्त होने पर प्राणी का संसार में कोई भी शरण नहीं है-ऐसा पुनः पुनः चिन्तन । (२१) संसार अनुप्रेक्षा : संसार अनादि है : उसमें पड़ा हुआ जीव नरकादि चारों गतियों में परिभ्रमण करता है। इसमें जन्म, जरा, मरण आदि के दुःख ही दुःख हैं-ऐसा पुनः पुनः चिन्तन। (२२) एकत्व अनुप्रेक्षा : इस संसार में मैं अकेला ही हूँ, यहाँ पर मेरा कोई स्वजन परजन नहीं। मैं अकेला ही उत्पन्न हुआ, अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होऊँगा | मैं जो कुछ करूँगा उसका फल मुझे अकेले को ही भोगना पड़ेगा। कर्मजन्य दुःख को बाँटने में दूसरा कोई समर्थ नहीं-ऐसा बार-बार चिन्तन। (२३) अन्यत्व अनुप्रेक्षा : मैं शरीर आदि बाह्य पदार्थों से सर्वथा भिन्न हूँ और शरीर आदि मुझ से भिन्न हैं। आत्मा अमर है और शरीर आदि नाशवान हैं-ऐसा पुनः पुनः चिन्तन। (२४) अशुचि अनुप्रेक्षा : शरीर की अपवित्रता का बार-बार चिन्तन करना। (२५) आस्रव अनुप्रेक्षा : मिथ्यात्व आदि आस्रव जीवों को अकल्याण से युक्त और कल्याण से वंचित करते हैं-ऐसा पुनः पुनः चिन्तन। (२६) संवर अनुप्रेक्षा : संवर नए कर्मों के आदान को रोकता है। संवर की इस गुणवत्ता का चिन्तन।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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