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________________ ५१४ नव पदार्थ अर्थ है-विधिपूर्वक, जानकर, स्वीकार कर, सम्यक्दर्शनपूर्वक' | श्री अकलङ्कदेव के अनुसार इस का अर्थ है-सत्कार, लोक-प्रसिद्धि, विषय-सुख की आकांक्षा आदि को छोड़कर। इस प्रकार योगों का निरोधन करना गुप्ति है। इसके तीन भेद हैं : (१) कायगुप्ति : सोने, बैठने, ग्रहण करने, रखने आदि क्रियाओं में जो शरीर की चेष्टाएँ हुआ करती हैं, उनके निरोध को कायगुप्ति कहते हैं। (२) वाकगुप्ति : वचन-प्रयोग का निरोध करना अथवा सर्वथा मौन रहना वागुप्ति (३) मनोगुप्ति : मन में सावध संकल्प होते हैं उनके निरोध, अथवा शुभ संकल्पों के धारण, अथवा कुशल-अकुशल दोनों ही तरह के संकल्पमात्र के निरोध करने को मनोगुप्ति कहते हैं। वाचक उमास्वाति ने गुप्तियों की जो पूर्वोक्त परिभाषाएँ दी हैं वे प्रायः निवृत्तिपरक हैं। केवल मनोगुप्ति में कुशल संकल्पों के धारण को भी स्थान दिया है। अभयदेवसूरि ने तीनों ही गुप्तियों को अकुशल से निवृत्ति और कुशलं में प्रवृत्तिरूप कहा है। १. तत्त्वा० ६.४ : भाष्य : सम्यगिति विधानतो ज्ञात्त्वाभ्युपेत्य सम्यग्दर्शनपूर्वकं त्रिविधस्य योगस्य निग्रहो गुप्तिः २. तत्त्वार्थवावर्तिक ६.४, ३ : सम्यगिति विशेषणं सत्कारलोकपङ्क्तयाद्याकाङ्क्षानिवृत्त्यर्थम् ३. तत्त्वा० ६.४ : भाष्य : ___ तत्र शयनासनादाननिक्षेपस्थानचंक्रमणेषु कायचेष्टानियमः कायगुप्ति : ४. वही : भाष्य : याचनपृच्छनपृष्टव्याकरणेषु वानियमो मौनमेव वा वाग्गुप्ति : ५. वही : भाष्य : सावद्यसंकल्पनिरोधः कुशलसंकल्पः कुशलाकुशलसंकल्पनिरोध एव वा मनोगुप्तिरिति ६. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : देशगुप्तसूरिप्रणीत नवतत्त्प्रकरणम् : गा० १० भाष्य : मणगुत्तिमाइयाओ, गुत्तीओ तिण्ण हुंति नायव्वा । अकुसलनिवित्तिरूवा, कुसलपवित्तिसरूवा य ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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