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________________ संवर पदार्थ (ढाल : १) ५०३ ४६. श्रावक जब कर्म-क्षय के हेतु उपवास, बेलादि तप करता है तो सावध योग के निरोध करने से सहचर विरति संवर भी होता है। ५०. श्रावक के सारे पौद्गलिक भोग-मन-वचन-काय के सावध व्यापार है। उनके प्रत्याख्यान से विरति संवर होता है और साथ-साथ तप भी होता है। ५१. साधु कल्प्य पुद्गल वस्तुओं का सेवन करता है वह निरवद्य योग-व्यापार है। इन वस्तुओं के त्याग से तपस्या होती है और योगों के निरोध से उत्तम संवर होता है। ५२. साधु का चलना, फिरना, बोलना आदि सब क्रियाएँ (यदि वे उपयोग पूर्वक की जायं तो) निरवद्य योग-व्यापार हैं। निरवद्य योगों के निरोध के अनुपात से संवर होता है और साथ-साथ उत्तम तपस्या भी निष्पन्न होती है। ५३. श्रावक का चलना, फिरना, बोलना आदि क्रियाएँ सावद्य और निरवद्य दोनों ही योग हैं। सावध योग के त्याग से विरति संवर होता है और निरवद्य योग के त्याग से उत्तम संवर होता है। संवर भाव जीव है ५४. चारित्र को 'विरति संवर' कहा गया है और वह अविरति के प्रत्याख्यान से होता है। अयोग संवर शुभ योगों के निरोध से होता है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है | संवर निश्चय ही जीव का स्वगुण है। भगवान ने इसे भाव-जीव कहा है। जो द्रव्य-जीव और भाव-जीव को नहीं पहचान सका उसके हृदय से मिथ्यात्व दूर नही हुआ-ऐसा समझो ५६. यह जोड़ संवर पदार्थ का परिचय कराने के लिए श्रीजीद्वार में सं० १८५६ की फाल्गुन बदी १३ शुक्रवार के दिन की रचना स्थान और संवत
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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