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________________ ४८० नव पदार्थ अपरिताप के लिए होता है। वे अपने और दूसरे को धार्मिक संयोजनों में जोड़ने वाले होते इस प्रसंग से स्पष्ट है कि जो भाव से जाग्रत हैं उनका जागना अच्छा है और जो भाव से सुप्त हैं उनका सोना अच्छा। जो भाव से सुप्त-जाग्रत हैं उनका भाव जागृति की अपेक्षा जागना अच्छा और भाव सुप्ति की अपेक्षा सोना अच्छा। (६) संवृत्त, असंवृत्त और संवृत्तासंवृत्त : जो सर्व विरत होता है उसे संवृत्त कहते हैं। जो अविरत होता है उसे असंवृत्त कहते हैं। जो विरताविरत होता है वह संवृत्तासंवृत्त है। (७) धर्मी, अधर्मी और धर्माधर्मी : जो विरत होते हैं वे धर्मी हैं, जो अविरत होते हैं अधर्मी और जो विरताविरत होते हैं वे धर्माधर्मी। जयन्ती ने पूछा-“जीवों का दक्ष-उद्यमी होना अच्छा या निरुद्यमी-आलसी होना अच्छा ?" भगवान ने उत्तर दिया-"धार्मिक जीवों का उद्यमी होना अच्छा क्योंकि वे वैयावृत्त्य में आत्मा को नियोजित करते हैं। अधार्मिक जीवों का निरुद्यमी होना अच्छा क्योंकि वे अनेक जीवों के कष्ट के कारण होंगे।" जयन्ती ने पुनः पूछा-“भगवन् ! सबलता अच्छी या दुर्बलता ?" भगवान ने उत्तर दिया-“जयन्ती अधर्मी जीवों की दुर्बलता अच्छी क्योंकि ऐसे जीव दुर्बल हों तो वे जीवों के लिए दुःखादि के कारण नहीं होते। और धर्मी जीवों की सबलता अच्छी क्योंकि वे जीवों के अदुःख आदि के लिए होते हैं और वे जीवों को धार्मिक संयोजनों में संयोजित करते रहते हैं।" (८) धर्मस्थित, अधर्मस्थित और धर्माधर्मस्थित : ___ एक बार गौतम ने पूछा-“भगवन् ! क्या जीव धर्मस्थित होते हैं, अधर्मस्थित होते हैं अथवा धर्माधर्मस्थित होते हैं ?" भगवान महावीर ने उत्तर दिया-'गौतम ! जीव धर्मस्थित भी होते हैं, अधर्मस्थित भी होते हैं और धर्माधर्मस्थित भी।" १. भगवती १२.२ २. भगवती १२.२ ३. भगवती १७.२ : जीवा णं भंते ! किं धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माधम्मे ठिया ? गोयमा ! जीवा धम्मे वि ठिया, अधम्मे विठिया, धम्माधम्मे वि ठिया।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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