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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी : २२ ४७७ वे जीवन भर सर्व प्रकार के प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य (अठारह पापों) से निवृत्त नहीं होते। वे जीवन भर सर्व प्रकार के स्नान, मर्दन, वर्णक, विलेपन, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, माल्य, अलङ्कारों को नहीं छोड़ते। वे जीवन भर सर्व प्रकार के यान-वाहन, सर्व प्रकार के शय्या, आसन, भोग और भोजन के विस्तार, सर्व प्रकार के क्रय-विक्रय तथा मासा, आधा-मासा आदि व्यवहार, सर्व प्रकार के सोना, चांदी आदि के सञ्चय तथा झूठे तोल और झूठे मापों से जीवन भर निवृत्त नहीं होते। वे सर्व प्रकार के आरम्भ और समारम्भों से, सर्व प्रकार के सावध व्यापारों के करने और कराने से, सर्व प्रकार के पचन और पाचन से जीवन भर निवृत्त नहीं होते। वे जीवन भर प्राणियों को कूटने, पीटने, धमकाने, मारने, वध करने और बांधने तथा नाना प्रकार से उन्हें क्लेश देने से तथा इसी प्रकार के अन्य सावध, बोधबीज का नाश करने वाले और प्राणियों को परिताप देनेवाले कर्मों से, जो अनार्यों द्वारा किये जाते हैं, निवृत्त नहीं होते। वे अत्यंत क्रूर दण्ड देने वाले हैं। वे दुःख, शोक, पश्चाताप, पीड़ा, ताप, वध, बंधन आदि क्लेशों से कभी निवृत्त नहीं होते। ऐसे मनुष्य गृहस्थ होते हैं। वे अविरत कहलाते हैं। यह धर्म पक्ष है। (ख) दूसरे प्रकार के मनुष्य अनारंभी और अपरिग्रही होते हैं | वे धर्मी, धर्मानुग, धर्मिष्ठ यावत् धर्म से ही आजीविका करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं । वे सुशील, सुव्रती, सुप्रत्यानन्द और सुसाधु होते हैं। वे जीवन भर सर्व प्रकार के प्राणातिपात यावत सर्व सावद्य कार्यों से निवृत्त होते हैं। वे अनगार होते हैं। ऐसे मनुष्य विरत कहलाते हैं। यह धर्म पक्ष (ग) तीसरे प्रकार के मनुष्य अल्पेच्छा, अल्पारंभ और अल्प-परिग्रह वाले होते हैं। वे धार्मिक यावत् धर्म से ही आजीविका करने वाले होते हैं। वे सुशील, सुव्रती, सुप्रत्यानन्द और साधु होते हैं। वे एक प्रकार के प्राणातिपात से यावज्जीवन के लिए विरत होते हैं और एक प्रकार के प्राणातिपात से विरत नहीं होते। इसी तरह यावत् अन्य सावद्य कार्यों में से कई से निवृत्त होते हैं और कई से निवृत्त नहीं होते। ये श्रमणोपासक हैं। ऐसे मनुष्य विरताविरत कहलाते हैं। यह मिश्र पक्ष है। इनमें से प्रथम स्थान जो सभी पापों से अविरति रूप है आरम्भस्थान है। यह अनार्य यावत् सर्व दुःख का नाश न करनेवाला एकान्त मिथ्या और असाधु है। दूसरा स्थान जो सर्व पापों से विरति रूप है वह अनारम्भस्थान है। वह आर्य यावत् सर्व दुःख के नाश का मार्ग है। वह एकान्त सम्यक् और उत्तम है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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