________________
आस्त्रव पदार्थ (टाल : २) : टिप्पणी : १८
४७१
इनमें से प्रथम दो ध्यान अप्रशस्त हैं और अन्तिम दो प्रशस्त' । अप्रशस्त पापास्रव के कारण हैं और प्रशस्त कर्मों के निर्दहन करने की सामर्थ्य से युक्त' । प्रशस्त मोक्ष के हेतु हैं और अप्रशस्त संसार के । १८. पुण्य का आगमन सहज कैसे ? (गा० ४२-४५) :
गाथा ४१ में स्वामीजी ने शुभ अध्यवसाय, परिणाम, लेश्या, योग और ध्यान को संवर और निर्जरा रूप कहा है तथा उनसे पुण्य का आगमन सहज भाव से होता है, ऐसा लिखा है। संवर और निर्जरा की करनी से पुण्य का सहज आगमन कैसे होता है-इसी बात को स्वामीजी ने गा० ४२-४५ में स्पष्ट किया है। इस विषय में पहले कुछ विवेचन किया जा चुका है। प्रश्न है-यथातथ्य मोक्ष मार्ग की करनी करते हुए पुण्य क्यों लगता है ? इसका उत्तर स्वामीजी ने इस प्रकार दिया है
“एक मनुष्य को गेहूँ की अत्यन्त चाह है पर पयाल की चाह नहीं। गेहूँ को उत्पन्न करने के लिए उसने गेहूँ बोये। गेहूँ उत्पन्न हुए साथ में पयाल भी उत्पन्न हुआ। जिस तरह इस मनुष्य को गेहूँ की ही चाह थी, पयाल की नहीं फिर भी पयाल साथ में उत्पन्न हुआ उसी प्रकार निर्जरा की करनी करते हुए भले योगों की प्रवृत्ति से कर्म क्षय के साथ-साथ पुण्य सहज रूप से उत्पन्न होते हैं। गेहूँ के साथ बिना चाह पयाल होता है वैसे ही निर्जरा की करनी के साथ बिना चाह पुण्य होता है।
"धूल लगाने की इच्छा न होने पर भी राजस्थान में गोचरी जाने पर जैसे साधु के शरीर में धूल लग जाती है वैसे ही निर्जरा की करनी करते हुए पुण्य लग जाता है। निरवद्य योगों की प्रवृत्ति करते समय पुण्य निश्चय रूप से लगता है।
“निरवद्य करनी करते समय जीव के प्रदेशों में हलन-चलन होती है तब कर्म-पुद्गल आत्म-प्रदेशों में प्रवेश करते हैं। कर्म-पुद्गलों का स्वभाव चिपकने का है।
१. तत्त्वा० ६.२८ सर्वार्थसिद्धि ___तदेतच्चचतुर्विधं ध्यानं वैविध्यमश्नुते। कुतः ? प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् २. वही :
अप्रशस्तमपुण्यास्रवकारणत्वातः कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात्प्रशस्तम् ३. तत्त्वा० ६.३० ४. पृ० १७५ अंतिम अनुच्छेद तथा पृ० २०४ टि० ४ (२) ५. टीकम डोसी की चर्चा