SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२२ नव पदार्थ भगवती १७.२ में निम्न पाठ है : एवं खलु पाणातिवाए. . . .जाव-मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे, सच्चेव जीवाया। -जो प्राणातिपातादिक १८ पापों में वर्तता है वही जीव है और वही जीवात्मा है। जीव का अठारह पापों में वर्तन अमुक-अमुक आस्रव है। मिथ्यादर्शन में वर्तना मिथ्यात्व आस्रव है। दूसरे पापों में वर्तना दूसरे-दूसरे आस्रव हैं। यथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में वर्तन क्रमशः प्राणातिपात आदि आस्रव हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ में वर्तना क्रोधादि-आस्रव हैं। प्राणातिपात आदि ये सर्व व्यापार योग आस्रव के भेद हैं। ये सर्व व्यापार जीव के हैं अतः जीव-परिणाम हैं। इसी तरह अन्य कार्यों के सम्बन्ध मे समझना चाहिए। जीव की कोई भी प्रवृत्ति अजीव नहीं हो सकती । जीव की भिन्न २ प्रवृत्तियाँ ही योगास्रव हैं अतः वह अजीव नहीं। जैसे योगास्रव अजीव नहीं वैसे ही अन्य आस्रव अजीव नहीं। ४१. जीव, आस्रव और कर्म (गा० ६०-६१) : यहाँ स्वामीजी ने निम्न बातें कही हैं : (१) जीव कर्मों का कर्ता है। . (२) जीव मिथ्यात्वादि आस्रवों से कर्मों का कर्ता है। (३) आस्रव जीव-परिणाम हैं | जो किये जाते हैं वे कर्म पौद्गलिक और आस्रव से भिन्न हैं। आगमों में 'सयमेव कडेहि गाहइ' (सुय० १, २.१.४)-अपने किये हुए कर्मों से जीव संसार-भ्रमण करता है, 'कडाण कम्माण न मुक्खुअत्थि' (उत्त० ४.३)-किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं, 'कत्तारमेव अणुजाणइ कम्म'-(उत्त० १३.२३)-कर्म कर्ता का ही अनुसरण करता है आदि अनेक वाक्य मिलते हैं। ऐसे ही वाक्यों के आधार पर स्वामीजी ने कहा है-जीव कर्मों का कर्ता है। आचार्य जवाहरलालजी ने लिखा है-“भगवती सूत्र शतक ७ उद्देसक १ में पाठ आया है कि-'दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे' अर्थात् 'कर्मों से युक्त पुरुष ही कर्म का स्पर्श करता है परन्तु अकर्मा पुरुष, कर्म का स्पर्श नहीं करता। यदि अकर्मा (कर्म रहित) पुरुष को भी कर्म का स्पर्श हो तो सिद्धात्मा पुरुषों में भी, कर्म का स्पर्श मानना पड़ेगा। परन्तु यह बात नहीं होती अतः निश्चित होता है कि कर्म भी कर्म के ग्रहण
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy