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________________ आस्त्रव पदार्थ (दाल : १) : टिप्पणी २७-२८ ४०७ कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे मिच्छादिट्ठी ३ अविरए असण्णी अण्णाणी आहारए छउमत्थे सज़ोगी संसारत्थे असिद्धे, से तं जीवोदयनिष्फन्ने । यहाँ जीव उदयनिष्पन्न के जो ३३ बोल कहे हैं, उनमें छ: भाव लेश्याएँ, चार भाव कषाय, मिथ्यादृष्टि, अव्रती, सयोगी भी अन्तर्निहित हैं। अतः ये सब जीव हैं। चार भाव कषाय अर्थात कषाय आस्रव, मिथ्यादृष्टि अर्थात् मिथ्यात्व आस्रव, अव्रती अर्थात् अविरति आस्रव, सयोगी अर्थात् योग आस्रव । इस तरह ये आस्रव जीव सिद्ध होते हैं। भगवती १२.१० के पाठ में आठ आत्माएँ इस प्रकार कहीं गयी हैं : द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा : इन आठ आत्माओं में कषाय आत्मा और योग आत्मा का उल्लेख भी है। कषायआत्मा कषाय-आस्रव है। योग-आत्मा योग-आस्रव है। जो कषाय-आस्रव और योग-आस्रव को अजीव मानते हैं उनके मत से कषाय-आत्मा और योग-आत्मा भी अजीव होना चाहिए। पर वे उपयोग-आत्मा, ज्ञान-आत्मा आदि की तरह ही जीव हैं, अजीव नहीं अतः कषाय-आस्रव और योग-आस्रव भी जीव हैं। मिथ्यात्व, अविरति और कषाय को आगम में जीव-परिणाम कहा है। मिथ्यात्व के सम्बन्ध में देखिए-भगवती २०-३, अनुयोगद्वार सू० १२६ । अविरति के सम्बन्ध में देखिए-अनुयोगद्वार १२६ । कषाय के विषय में देखिए-स्थानाङ्ग १०.१.७१३। इससे मिथ्यात्व, अविरति और कषाय आस्रव-ये तीनों जीव सिद्ध होते हैं। २७. योग. लेश्यादि जीव-परिणाम हैं अत: योगास्रव आदि जीव हैं (गा० ३८) : योग, लेश्या, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय इनके सम्बन्ध में पूर्व (टि० २४-२५-२६) में जो विवेचन है उससे स्पष्ट है कि योग आदि पाँचों कर्मों के आने के हेतु होने से आस्रव हैं | वे कर्मों के कर्ता-उपाय हैं। उन्हें आगमों में आत्मा, जीव-परिणाम आदि संज्ञाओं से बोधित किया है। अतः यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि आस्रव मात्र-जीव-परिणाम, जीव-स्वरूप हैं अतः जीव हैं। २८. आस्रव जीव-अजीव दोनों का परिणाम नहीं (गा० ३९-४०) यहाँ स्वामीजी ने स्थानाङ्ग (ठाणाङ्ग) का उल्लेख किया है पर वास्तव में स्थानाङ्ग की टीका से अभिप्राय है'। स्थानाङ्ग के नवें स्थानक सूत्र ६६५ में नौ सद्भाव पदार्थों का उल्लेख है-"नव सब्भावपयत्था पं० तं० जीवा अजीवा पुण्णं पावो आसवो संवरो निज्जरा बंधो मोक्खो। १. भ्रमविध्वंसनम् पृ० २६८ : "केतला एक अजाण जीव आस्रव ने अजीव कहै छै। अनें रूपी कहे छै। तेहनों उत्तर-ठाणाङ्ग ठा ६ टीका में आश्रव ने जीव ना परिणाम कह्या छै
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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