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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी २४
श्री अकलङ्कदेव लिखते हैं- "आस्रव के प्रसंग में योग का अर्थ है त्रिविध क्रिया । तीनों योग आत्म-परिणामरूप ही हैं। स्वामीजी कहते हैं- जो आत्मपरिणामरूप हैं वे योग आत्मरूप ही हो सकते हैं अतः जीव हैं-अरूपी हैं।
२४. योगास्रव जीव कहा गया है (गाथा ३२-३४) :
यहाँ स्वामीजी ने योग किस तरह जीव है, यह सिद्ध किया है। भगवती १२.१० में आठ आत्माएँ कही गई हैं। उनमें योगात्मा का भी उल्लेख है ।
"गोयमा ! अट्ठविहा आया पण्णत्ता, तंजहा -दवियाया, कसायाया, योगाया, उवओगाया, णाणाया, दंसणाया चरिताया वीरियाया । *
"योगा मनः प्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधानात्मा योगात्मा, योगवतामेव (भगवती १२.१० टीका) मन आदि के व्यापार को योग कहते हैं। योगप्रधान - योगयुक्त आत्मा को योगात्मा कहते हैं। इससे भासित होता है कि योग आस्रव आत्मा है।
आगम में दस जीव-परिणाम कहे हैं। स्थानाङ्ग (१०.१.७१३) में इस सम्बन्ध में निम्न पाठ मिलता है :
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"दसंविधे जीवपरिणामे पं० तं०-गतिपरिणामे इंदितपरिणामे कसायपरिणामे लेसा० जोग० उवओग० णाण० दंसण० चरित्त० वेतपरिणामे ।
उनमें योग- परिणाम का भी उल्लेख है। इससे योग- आस्रव जीव-परिणाम ठहरता
है ।
इस तरह आगमों के उल्लेख से योग- आस्रव स्पष्टतः जीव सिद्ध होता है । योग का अर्थ है- मन, वचन, और काय की प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति सावद्य और निरवद्य दो प्रकार की होती है। सावद्य अर्थात् पापपूर्ण, निरवद्य अर्थात् पाप रहित । सावद्य योग पाप का आस्रव है, निरवद्य योग निर्जरा का हेतु होने से पुण्य का आस्रव है। सावद्य करनी • से विपाकावस्था में दुःख भोगना पड़ता है और निरवद्य करनी से सुखानुभूति होती है । सावद्य-निरवद्य करनी अजीव नहीं हो सकती। योगास्रव क्रियात्मक है। अतः वह जीव है इसमें कोई सन्देह नहीं ।
१. तत्त्वार्थवार्तिक ६.१.१२; ६.१.६.
इहास्रवप्रतिपादनार्थत्वात् त्रिविधक्रिया योग इत्युच्यते ।
आत्मा हि निरवयवद्रव्यम्, तत्परिणामो योगः