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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी १२-१३ ३८६ शिष्य-भंते ! जीव निरास्रवी कैसे होता है ?" गुरु-“हे शिष्य ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि भोजन के विरमण से जीव निरास्रवी होता है। जो पांचसमिति से युक्त, तीन गुप्ति से गुप्त, कषायरहित, जितेन्द्रिय, गौरव-रहित और निःशल्य होता है वह जीव निरास्रवी होता है। इस पाठ से यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मों से मुक्त होने की पहली प्रक्रिया है नये-कर्मों के आगमन का निरोध करना; आस्रव को रोकना । जो आस्रवरहित होता है उसके भारी से भारी कर्म तप से निर्जरित होते हैं। जीव तालाब तुल्य है, आस्रव जल-मार्ग के सदृश और कर्म जल तुल्या। जीव रूपी तालाब को कर्म रूपी जल से विरहित करना हो तो आस्रव रूपी स्रोत-विवर-नाले को पहले रोकना होगा। १२. मृगापुत्र और आस्रव-निरोध (गा० १५) : उत्तराध्ययन (अ० १६.६३) के जिस पाठ की ओर यहाँ इंगित किया गया है उसका सम्बन्ध मृगापुत्र के साथ है। मृगापुत्र सुग्रीवनगर के राजा बलभद्र के पुत्र थे। उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रव्रज्या के बाद वे बड़े ही तपस्वी और समभावी साधु हुए। उनके गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है : ____ अप्पसत्थेहिं दारेहिं सव्वओ पिहियासवे । अज्झप्पज्झाणजोगेहिं पसत्थदमसासणे ।। "वे सभी अप्रशस्त द्वारों और सभी आस्रवों का निरोध कर आध्यात्मिक शुभ ध्यान के योग से प्रशस्त संयम वाले हुए । स्वामीजी के कथन का सार है-आस्रव-द्वार के निरोध का उल्लेख अनेक स्थलों पर है इसका कारण यही है कि आस्रव पाप-कर्मों के आने का हेतु है। पहले उसे रोकना आवश्यक होता है जिससे कि नया भार न हो। जिस प्रकार कर्ज से मुक्त होने के लिए नये कर्ज से परहेज करना आवश्यक है वैसे ही पूर्व संचित कर्मों से मुक्त होने के लिए निरास्रवी होना आवश्यक है। १३. पिहितास्रव के पाप का बंध नहीं होता (गा० १६) : दशवैकालिक (अ० ४.६) की जिस गाथा का यहाँ संदर्भ है वह इस प्रकार है : सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ। . पिहियासवस्स दन्तस्स पावं कम्मं न बन्धई ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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