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________________ ઉર नव पदार्थ आस्रव के ४२ भेद : आस्रव के ४२ भेदों का विवरण इस प्रकार है : इंदियकसायअव्वयकिरिया पणचउपंचपणवीसा। · जोगा तिण्णेव भवे, बायालं आसवो होई ।।६।। १५. इन्द्रिय आस्रव : आस्रव के २० भेदों के विवेचन में वर्णित श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय तक के पाँच आस्रव (क्रमः ११-१५)। ६. क्रोध आस्रव : अप्रीति करना ! ७. मान आस्रव : गर्व करना। ८. माया आस्रव : परवंचना करना। ६. लोभ आस्रव : मूर्छा भाव करना। १०-१४. अविरति आस्रव : आस्रव के २० भेदों में वर्णित प्राणातिपात से मैथुन तक के पाँच आस्रव (क्रमः ६-१०)। १५-१७. योग आस्रव : आस्रव के २० भेदों में वर्णित मन आस्रव, वचन आस्रव और काय आस्रव (क्रमः १६-१८)। १८. 'सम्यक्त्वक्रिया आस्रव : सम्यक्त्व वर्द्धिनी क्रिया । जीवादि पदार्थों में श्रद्धारूप लक्षण वाले सम्यक्त्व को उत्पन्न करने और बढ़ाने वाली क्रिया। १६. मिथ्यात्वक्रिया आस्रव : मिथ्यात्व की हेतु प्रवृत्ति । जीवादि तत्त्वों में अश्रद्धा रूप लक्षण वाले मिथ्यात्व को उत्पन्न करने और बढ़ाने वाली कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र की उपासना,स्तवन आदि रूप क्रिया। २०. प्रयोगक्रिया आस्रव : कायादि द्वारा गमनागमन आदि रूप प्रवृत्ति। १. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रहः नवतत्त्वप्रकरणं (श्री देवगुप्त सूरि प्रणीत) २. यहाँ से क्रियाओं की व्याख्या आरम्भ होती है। ___ आगमों के स्थलों को देखने से क्रियाओं की संख्या २७ आती है (ठाणाङ्ग २.६०; ५, २.४१६; भगवती ३.३)। आस्रव के ४२ भेदों की गणना में सभी आचार्यों ने क्रियाएँ २५ ही मानी हैं। २७ क्रियाओं में से एक परम्परा प्रेमक्रिया और द्वेषक्रिया को छोड़ देती है। दूसरी परम्परा इन्हें ग्रहण कर सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया को छोड़ देती है। क्रियाओं के अर्थ की दृष्टि से भी दो परम्पराएँ स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती हैं। श्री सिद्धसेन गणि और आ० पूज्यपाद की व्याख्याएँ कुछ स्थलों को छोड़ कर प्रायः मिलती-जुलती हैं। यहाँ मूल में इन्हीं को दिया है। इन दोनों की कई व्याख्याएँ आगम टीकाकारों से विशिष्ट रूप से भिन्न हैं। अन्तर पाद-टिप्पणियों में प्रदर्शित है। ठाणाङ्ग २.६० की टीका के अनुसार जीव का सम्यग्दर्शन रूप व्यापार अथवा सम्यग्दर्शनयुक्त जीव का व्यापार सम्यक्त्वक्रिया है और जीव का मिथ्यात्व रूप व्यापार अथवा मिथ्यादृष्टि जीव का व्यापार मिथ्यात्वक्रिया है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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