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नव पदार्थ
क्रोध-मान; माया-लोभ; राग-द्वेष; चतुरन्त संसार; देव-देवी; सिद्धि-असिद्धि; सिद्धि का निज-स्थान; साधु-असाधु और कल्याण-पाप नहीं हैं, पर संज्ञा करो कि लोक-अलोक; जीव-अजीव आदि सब हैं। इस उपदेश से भिन्न दृष्टि का रखना मिथ्यात्व आश्रव है।
मिथ्यात्व पाँच प्रकार का कहा गया है। उनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है : (१) आभिग्रहिक मिथ्यात्व : तत्त्व की परीक्षा किये बिना किसी सिद्धान्त को ग्रहण
कर दूसरे का खण्डन करना; (२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व : गुणदोष की परीक्षा किये बिना सब मंतव्यों को
समान समझना; (३) संशयित मिथ्यात्व : देव, गुरु और धर्म के स्वरूप में संदेह बुद्धि रखना; (४) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व : अपनी मान्यता को असत्य समझ लेने पर भी उसे
पकड़े रहना और (५) अनाभोगिक मिथ्यात्व : विचार और विशेष ज्ञान के अभाव में अर्थात् मोह की
प्रबलतम अवस्था में रही हुई मूढ़ता । आचार्य पूज्यपाद ने मिथ्यात्व के भेदों के सम्बन्ध में निम्न विचार दिये हैं-मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है :
(१) नैसर्गिक : दूसरे के उपदेश बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धान रूप भाव नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है।
(२) परोपदेशपूर्वक : अन्य दर्शनी के निमित्त से होनेवाला मिथ्यादर्शन परोपदेशपूर्वक कहलाता है। यह क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक चार प्रकार का होता है।
उमास्वाति ने इनको क्रमशः अनभिगृहीत और अभिगृहीत मिथ्यात्व कहा है। इनका उल्लेख आगम में भी है।
१. सुयगडं २.५.१२-२८ २. तत्त्वा० ८.१ सर्वार्थसिद्धि :
मिथ्यादर्शनं द्विविधम्; नैसर्गिक परोपदेशपूर्वकं च। तत्र परोपदेशमन्तरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम् । परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्; क्रियाक्रियावाद्यज्ञानिकवैनयिकविकल्पात् । ३. तत्त्वा० ८.१ भाष्यः
तत्राभ्युपेत्यासम्यग्दर्शनपरिग्रहोऽभिगृहीतमज्ञानिकादीनां त्रयाणां त्रिषष्ठानां कुवादशतानाम् ।
शेषनभिगृहीतम्। ४. . ठाणाङ्ग २.७०