SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० नव पदार्थ २. आस्रव शुभ-अशुभ परिणामानुसार पुण्य अथवा पाप का द्वार है (दो० २) : इस दोहे में दो बातें कही गई हैं : (१) जीव के परिणाम आस्रव हैं। . (२) भले परिणाम पुण्य के आस्रव हैं और बुरे परिणाम पाप के। नीचे क्रमशः इन सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है : (१) जीव के परिणाम आस्रव हैं : जिस तरह नौका में जल भरता है उसका कारण नौका का छिद्र है और मकान में मनुष्य प्रविष्ट होता है उसका कारण मकान का द्वार है वैसे ही जीव के प्रदेशों में कर्म के आगमन हेतु उसके परिणाम हैं। जीव के परिणाम ही आस्रव-द्वार हैं। परिणाम का अर्थ है मिथ्यात्व, प्रमाद आदि भाव जिनमें जीव परिणमन करता है। (२) भले परिणाम पुण्य के आस्रव हैं और बुरे परिणाम पाप के : जीव जिन भावों में परिणमन करता है वे शुभ या अशुभ होते हैं। शुभ भाव पुण्य के आस्रव हैं और अशुभ परिणाम पाप के। जिस तरह सर्प द्वारा ग्रहण किया हुआ दूध विष रूप में परिणमन होता है और मनुष्य द्वारा ग्रहण किया हुआ दूध पौष्टिक सत्त्व के रूप में, उसी तरह बुरे परिणामों से आत्मा में सवित कर्मवर्गणा के पुदगल पाप रूप में परिणमन करते हैं और भले परिणामों से आत्मा में स्रवित कर्मवर्गणा के पुद्गल पुण्य रूप में। श्री हेमचन्द्रसूरि ने इस विषय का बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है। वे लिखते हैं : “मन-वचन-काय की क्रिया को आस्रव कहते हैं। शुभ आस्रव शुभ-पुण्य का हेतु है और अशुभ आस्रव अशुभ-पाप का हेतु। चूंकि जीव के मन-वचन-काय के क्रिया-रूप योग शुभाशुभ कर्म का स्राव करते हैं अतः वे आस्रव कहलाते हैं। मैत्र्यादि भावनाओं से वासित चित्त शुभ कर्म उत्पन्न करता है और कषाय तथा विषय से वासित चित्त अशुभ कर्म । श्रुतज्ञानाश्रित सत्यवचन शुभ कर्म उत्पन्न करता है और उससे विपरीत वचन अशुभ कर्म। इसी तरह सुगुप्त शरीर से जीव शुभ कर्म ग्रहण करता है और निरन्तर आरंभवाला जीव-हिंसक काया के द्वारा अशुभ कर्म'।' १. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : सप्ततत्त्वप्रकरणम् ५६-६०: मनोवचनकायानां, यत्स्यात् कर्म स आश्रवः । शुभः शुभस्य हेतुः स्यादशुभस्त्वशुभस्य सः।। मनोवाक्कायकर्माणि, योगाः कर्म शुभाशुभम्। यदाश्रवन्ति जन्तूनामाश्रवास्तेन कीर्तिताः।। मैत्र्यादिवासितं चेतः, कर्म सूते शुभात्मकम् । कषायविषयाक्रान्तं, वितनोत्यशुभं पुनः।। शुभार्जनाय निर्मिथ्यं, श्रुतज्ञानाश्रितं वचः । विपरीतं पुनयिमशुभार्जनहेतवे।। शरीरेण सगुप्तेन, शरीरी चिनुते शुभम् । सततारम्भिणा जन्तुघातकेनाशुभं पुनः।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy