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पाप पदार्थ : टिप्पणी १२
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जातिविहीनता, कुलविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता नीचगोत्रकर्म के विपाक नीचगोत्रकर्म के उदय से मनुष्य को अपमान, दीनता, अवहेलना आदि का अनुभव होता है। इनसे मनुष्य मन में दुःख करने लगता है। स्वामीजी कहते हैं-ये हीनताएँ भी स्वयंकृत हैं। निश्चय रूप में परकृत नहीं। ऐसी स्थिति में दूसरों को इनका कारण समझ अपना आपा नहीं खोना चाहिए; समभाव रखना चाहिए। जो अपनी अविशिष्टताओं को समभावपूर्वक सहन करता है उसके विशिष्ट तप होता है और निर्जरा के साथ-साथ पुण्यकर्म का बंध होता है। आगम में कहा है : “मनुष्य सोचे यदि मैं इन दुःखों को सम्यक् रूप से सहन नहीं करता, क्षमा नहीं करता तो मुझे ही नये कर्मों का बंधन होगा। और यदि मैं इन्हें सम्यक् रूप से सहन करूंगा तो इससे मेरे कर्मों की सहज निर्जरा होगी।"
नीचगोत्रकर्म के बंध-हेतुओं का विवेचन पहले किया जा चुका है। श्री हेमचन्द्र सूरि ने इनका संकलन इस रूप में किया है :
परस्य निन्दावज्ञोपहासाः सद्गुणलोपनम् । सदसद्दोषकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम् ।। सदसगुणशंसा च, स्वदोषाच्छादनं तथा। जात्यादिभिर्मदश्चेति, नीचैर्गोत्राश्रवा अमी।। नीचैर्गोत्रावविपर्यासो विगतगर्वता।
वाक्कायचित्तैर्विनय, उच्चैर्गोत्राश्रवा अमी।। गोत्रकर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा-कोटि सागरोपम की है।
चार अघाति कर्मों का विवेचन यहाँ सम्पूर्ण होता है।
१. ठाणाङ्ग ५.१.४०६ २. देखिए पृ० २२८ टि० २२ ३. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : सप्ततत्त्वप्रकरणम् १०७-१०६ ४. उत्त० ३३.२३ :
उदहीसरिसनामाणं वीसई कोडिकोडीओ। नामगोत्ताणं उक्कोसा अट्ठ मुहुत्ता जहन्निया ।।