SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी ११ जो कर्म पहले बंधे हुए तथा वर्तमान में बंधनेवाले औदारिक आदि शरीर के पुद्गलों का आपस में लाख के समान सम्बन्ध करता है उस कर्म को बन्धननामकर्म कहते हैं जैसे दंताली तृण-समूह को इकट्ठा करती है वैसे ही जो कर्म गृहीत और गृह्यमाण पुद्गलों को इकट्ठा करता है उनका सानिध्य करता है उसे संघातनामकर्म कहते हैं। शरीर के पाँच भेदों के अनुसार इन दोनों उत्तर प्रकृतियों के अवान्तर भेद निम्न प्रकार पाँच-पाँच हैं : शरीरबंधननाम (१) औदारिकशरीरबंधननाम (२) वैक्रियशरीरबंधननाम (३) आहारकशरीरबंधननाम (४) तैजसशरीरबंधननाम (५) कामर्णशरीरबंधननाम (१) औदारिकशरीरसंघातनाम (२) वैक्रियशरीरसंघातनाम (३) आहारकशरीरसंघातनाम (४) तैजसशरीरसंघातनाम (५) कामर्णशरीसंघातनाम इसी तरह वर्णनाम (क्र० ७) रसनाम (क्र० ६ ) और स्पर्शनाम (क्र० १० ) के वर्णित दो दो कुल ६ उपभेदों के स्थान में उनके उपभेद आगम में इस प्रकार उपलब्ध हैं : वर्णनाम कृष्णवर्णनाम, नीलवर्णनाम, लोहितवर्णनाम, हारिद्रवर्णनाम, श्वेतवर्णनाम | रसनाम तिक्तरसनाम, कटुरसनाम, कषायरसनाम, आम्लरसनाम, मधुरसनाम | कर्कशस्पर्शनाम, मृदुस्पर्शनाम, गुरुस्पर्शनाम, लघुस्पर्शनाम, स्निग्धस्पर्शनाम, रूक्षस्पर्शनाम, शीतस्पर्शनाम, उष्णस्पर्शनाम । स्पर्शनाम यहाँ उक्त उत्तर प्रकृतियों को गिनने से नामकर्म के कुल भेद ६५ (७१–६) -५+५= ६३ होते हैं। यही संख्या श्वेताम्बर दिगम्बर सर्वमान्य है' । शरीरसंघातनाम ३३५ १. - (क) प्रज्ञापना २३.२.२६३ (ख) गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड) : २२
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy