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नव पदार्थ
दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव देखने योग्य वस्तु को भी नहीं देख पाता। देखने की इच्छा होने पर भी नहीं देख पाता । देख कर भी नहीं देख पाता । दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव आच्छादितदर्शनवाला होता है। .
दर्शनावरण कर्म के उक्त नौ भेदों के अनुसार नौ अनुभाव हैं : १. निद्रा
६. चक्षुदर्शनावरण २. निद्रानिद्रा
७. अचक्षुदर्शनावरण ३. प्रचला
८. अवधिदर्शनावरण ४. प्रचला-प्रचला
और ५. स्त्यानर्द्धि
६. केवलदर्शनावरण। ज्ञानावरणीय कर्म की तरह इस दर्शनावरणीयकर्म की भी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की होती है।
दर्शनावरणीय कर्म के बंध-हेतुओं का नामोल्लेख पहले आ चुका है। देखिए-पुण्य पदार्थ (ढा० २) टि० २३ पृ० २२६ | दर्शनावरणीय कर्म के बंध-हेतु वे ही हैं जो ज्ञानावरणीय कर्म के बंध-हेतु हैं। केवल ज्ञान के स्थान में दर्शन शब्द ग्रहण करना : चाहिए। अर्थ भी समान है।
दर्शनावरणीय कर्म के सम्पूर्ण क्षयं से केवल दर्शन उत्पन्न होता है, जिससे जीव की अनन्त दर्शन-शक्ति प्रकट होती है। जब क्षय न होकर केवल क्षयोपशम होता है तब चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन दर्शन प्रकट होते हैं।
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प्रज्ञापना २३.१ : गोयमा ! दरिसणावरणिज्जस कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गपरिणामं पप्प णवविधे अणुभावे पन्नत्ते, तंजहा-णिद्दा, णिद्दाणिद्दा पयला, पयलापयला, थीणद्धी चक्खुदंसणावरणे, अचक्खुदंसणावरणे, ओहिदंसणावरणे, केवलदंसणावरणे, जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम तेसिं वा उदएणं पासियव्वं वा ण पासति, पासिउकामेवि ण पासति, पासित्ता वि ण पासति, उच्छन्नदंसणी यावि भवति दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं। उत्त० ३३.१६-२० पृ० ३०६ पा० टि० १ में उद्धृत
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