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नव पदार्थ
'सुख-दुःख स्वयंकृत होते हैं या परकृत ?' - यह प्रश्न बुद्ध के सामने भी आया । नीचे पूरा प्रसंग दिया जाता है । बुद्ध बोले :
'भिक्षुओ ! कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख वा अदुःख असुख अनुभव करता है वह सब पूर्व कर्मों के फलस्वरूप अनुभव करता है । "
'भिक्षुओ ! कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख वा अदुःख असुख अनुभव करता है वह सब ईश्वर-निर्माण के कारण अनुभव करता है।"
" भिक्षुओ ! कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी आदमी सुख, दुःख वा अदुःख-असुख अनुभव करता है वह सब बिना किसी हेतु के, बिना किसी कारण के ।"
" भिक्षुओ ! जिन श्रमण-ब्राह्मणों का यह मत है, यह दृष्टि है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख वा अदुःख असुख अनुभव करता है, वह सब पूर्व-कर्मों के फलस्वरूप अनुभव करता है, उनके पास जाकर मैं उनसे प्रश्न करता हूँ- आयुष्मानो ! क्या सचमुच तुम्हारा यह मत है कि जो कुछ भी कोई आदमी सुख, दुःख वा अदुःख-असुख अनुभव करता है, वह सब पूर्व-कर्मों के फलस्वरूप अनुभव करता है ? मेरे ऐसा पूछने पर वे "हाँ" उत्तर देते हैं।
"तब उनसे मैं कहता हूँ-तो आयुष्मानो ! तुम्हारे मत के अनुसार पूर्व-जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी चोरी करने वाले होते हैं, पूर्व-जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी अब्रह्मचारी होते हैं, पूर्व-जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी झूठ बोलने वाले होते हैं, पूर्व जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी चुगल खोर होते हैं, पूर्व जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी कठोर बोलने वाले होते हैं, पूर्व जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी व्यर्थ बकवास करने वाले होते हैं, पूर्व जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी लोभी होते हैं, पूर्व-जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी क्रोधी होते हैं; तथा पूर्व-जन्म के कर्म के ही फलस्वरूप आदमी मिथ्यादृष्टि वाले होते हैं । भिक्षुओ ! पूर्वकृत कर्म को ही सार रूप ग्रहण कर लेने से यह करना योग्य है और यह करना अयोग्य है, इस विषय में संकल्प नहीं होता, प्रयत्न नहीं होता । जब यह करना योग्य है और यह करना अयोग्य है, इस विषय में ही यथार्थ ज्ञान नहीं होता तो इस प्रकार के मूढ़-स्मृति,