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पाप पदार्थ : टिप्पणी १
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से पापांश की हानि संभव नहीं होगी। और न पापांश की वृद्धि से पुण्यांश की हानि । जिस तरह देवदत्त की वृद्धि होने से यज्ञदत्त की वृद्धि नहीं होती अतः वे भिन्न-भिन्न हैं उसी प्रकार पापांश की वृद्धि से पुण्यांश की वृद्धि नहीं होती और पुण्यांश की वृद्धि से पापांश की नहीं होती, अतः पुण्य और पाप दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है।
(घ) 'पुण्य-पाप जैसी कोई वस्तु ही नहीं है; स्वभाव से ही ये सब भवप्रपंच हैं'-यह सिद्धान्त युक्ति से बाधित है। संसार में जो सुख-दुःख की विचित्रता है वह स्वभाव से नहीं घट सकती । स्वभाव को वस्तु नहीं मान सकते कारण कि आकाशकुसुम की तरह वह अत्यन्त अनुपलब्ध है। अत्यन्त अनुपलब्ध होने पर भी यदि स्वभाव का अस्तित्व माना जाय तो फिर अत्यन्त अनुपलब्ध मान कर पुण्य-पाप रूप कर्म को क्यों अस्वीकार किया जाता है ? अथवा कर्म का ही दूसरा नाम स्वभाव है ऐसा मानने में क्या दोष है ? पुनः स्वभाव से विविध प्रकार के प्रतिनियत आकार वाले शरीरादि कार्यों की उत्पत्ति संभव नहीं; कारण कि स्वभाव तो एक ही रूप है। नाना प्रकार के सुख-दुःख की उत्पत्ति विविध कर्म बिना संभव नहीं । स्वभाव एक रूप होने से उसे कारण नहीं माना जा सकता। यदि स्वभाव वस्तु हो तो प्रश्न उठता है वह मूर्त है या अमूर्त ? यदि वह मूर्त है तो फिर नाममात्र का भेद हुआ। जिन जिसे पुण्य-पाप कर्म कहते हैं उसे ही स्वभाववादी स्वभाव कहते हैं। यदि स्वभाव अमूर्त है तो वह कुछ भी कार्य आकाश की तरह नहीं कर सकता, तो फिर देहादि अथवा सुख रूप कार्य करने की तो बात ही दूर । यदि स्वभाव को निष्कारणता माना जाय तो घटादि की तरह खरश्रृंङ्ग की भी उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?
पुनः उत्पत्ति निष्कारण नहीं मानी जा सकती। स्वभाव को वस्तु का धर्म माना जाय तो वह जीव और कई का पुण्य और पापरूप परिणाम ही सिद्ध होगा। कारणानुमान और कार्यानुमान द्वारा इसकी सिद्धि होती है। जिस प्रकार कृषि-क्रिया का कार्य शालि-यव-गेहूं आदि सर्वमान्य हैं उसी प्रकार दानादि क्रिया का कार्य पुण्य और हिंसादि क्रिया का कार्य पाप स्वीकार करना होगा। क्रिया कारण होने से उसका कोई कार्य मानना होगा। वह कार्य और कुछ नहीं जीव और कर्म का पुण्य और पाप रूप परिणाम है। पुनः देहादि का
१. गणधरवाद पृ० १५०-१