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________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी १ २७७ हो सकता है और वह पुण्य है। (ग) जो पुण्य-पाप को संकीर्ण-मिश्रित मानने हैं उनका कहना है कि जिस प्रकार अनेक रंगों के मिलने से एक साधारण संकीर्ण वर्ण बनता है, जिस प्रकार विविध रंगी मेचकमणि एक ही होती है अथवा सिंह और नर के रूप को धारण करने वाला नरसिंह एक है उसी प्रकार पाप और पुण्य संज्ञा प्राप्त करने वाली एक ही साधारण वस्तु है। इस साधारण वस्तु में जब एक मात्रा पुण्य बढ़ जाता है तब वह पुण्य और जब एक मात्रा पाप बढ़ जाता है तब वह पाप कहलाती है। पुण्यांश के अपकर्ष से वह पाप और पापांश के अपकर्ष से वह पुण्य कहलाता है। __ इसका उत्तर इस प्रकार है : कोई कर्म पुण्य-पाप उभय रूप नहीं हो सकता क्योंकि ऐसे कर्म का कोई कारण नहीं। कर्म का कारण योग है। किसी एक समय में योग शुभ होता है अथवा अशुभ परन्तु शुभाशुभ रूप नहीं होता। अतः उसका कार्य कर्म भी पुण्य रूप शुभ अथवा पापरूप अशुभ होता है, पुण्य-पाप उभय रूप नहीं। मन, वचन और काय इन तीन साधनों के भेद से योग के तीन भेद हैं। प्रत्येक योग के द्रव्य और भाव दो भेद हैं। मन, वचन और काययोग में जो प्रवर्तक पुद्गल हैं वे द्रव्य योग कहलाते हैं और मन-वचन-काय का जो स्फुरण-परिस्पंद है वह भी द्रव्य योग है। इन दोनों प्रकार के द्रव्य योग का कारण अध्यवसाय है और वह भावयोग कहलाता है। इनमें से जो द्रव्योग हैं उनमें . शुभाशुभता भले ही हो परन्तु उनका कारण अध्यवसाय रूप जो भावयोग है वह एक समय में शुभ अथवा अशुभ होता है, उभयरूप संभव नहीं। द्रव्ययोग को भी जो उभयरूप कहा है वह भी व्यवहारनय की अपेक्षा से । वह भी निश्चयनय की अपेक्षा से एक समय में शुभ या अशुभ ही होता है। तत्त्वचिंता के समय व्यवहार की अपेक्षा निश्चयनय की दृष्टि का १. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा० १६३४ : एतं चिय विवरीतं जोएज्जा सव्वपावपक्खे वि। ण य साधारणरूवं कम्मं तक्कारणाभावा ।। (ख) गणधरवाद पृ १४३ २. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा० १६११ : साधारणवण्णादि व अध साधारणमधेगमत्ताए। उक्करिसावकरिसतो तस्सेव य पुण्णपावक्खा।। (ख) गणधरवाद पृ० १३५-६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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