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________________ २४६ परिणामवाद का असर दान- व्यवस्था पर भी हुआ। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'भिक्षाष्टक' में कहा है- "जो यति ध्यानादि से युक्त, गुरु आज्ञा में तत्पर और सदा अनारम्भी होता और शुभ आशय से भ्रमर की तरह भिक्षाटन करता है तो उसकी भिक्षा 'सर्वसम्पतकरी' है। जो मुनि दीक्षा लेकर भी उससे विरुद्ध वर्तन करता है और असदारम्भी होता है उसकी भिक्षा 'पौरुषघ्नी' होती है। अन्य क्रिया करने में असमर्थ, गरीब, अन्धा, पंगु आदि मनुष्य आजीविका के लिए भिक्षा मांगता है तो वह 'वृत्ति - भिक्षा' है । उक्त तीनों तरह के भिक्षुओं को भिक्षा देने वाले व्यक्ति को क्षेत्रानुसार फल मिलता है अथवा देने वाले के आशय के अनुसार फल मिलता है, क्योंकि विशुद्ध आशय फल को देने वाला है' । ऐसी ही विचारधारा को लक्ष्य कर उपर्युक्त गाथाओं में स्वामीजी ने कहा है- " पात्र को प्रासुक एषणीय आदि कल्प्य वस्तुएं देने से पुण्य होता है। अन्य किसी को कल्प्य अकल्प्य देने से पुण्य का बन्ध नहीं है।" स्वामीजी ने अन्यत्र कहा है : पातर कुपातर हर कोई नें देवें, तिण नें कहीजें दातार । तिणमें पातर दान मुगत से पावडीयों, कुपातर सूं रूलें संसार रे ।।. अधर्मी जीवां ने दान देवें छें, ते एकंत अधर्म दांन । धर्मी नें दांन निरदोषण देवें, ते धर्म दांन कह्यों भगवान रे ।। सुपातर नें दीयां संसार घटें छें, कुपातर नें दीयां बधें संसार । ए वीर वचन साचा कर जांणों, तिणमें संका नहीं छें लिगार रे ।। जो दान सुपातर ने दीयों, तिणमें श्री जिण आग्या जांण रे । कुपातर दान में आगना नहीं, तिणरी बुधवंत करजों पिछांण रे ।। पातर कुपातर दोनूं ने दीयां, विकल जांणे, दोयां में धर्म रे । धर्म होसी सुपातर दान में, कुपातर नें दीयां पाप कर्म रे ।। खेतर कुखेतर श्री जिणवर कह्या, चौथें ठांणें ठाणाअंग मांय रे । सुखेत में दीयां जिण आगना, कुखेतर में आग्या नहीं कांय रे ।। नव पदार्थ १. अष्टकप्रकरण : भिक्षाष्टक ५.८ : दातृणामपि चैताभ्यः फलं क्षेत्रानुसारतः । विज्ञेयमाशयाद्वापि स विशुद्धः फलप्रदः ।। २. भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर ( खण्ड १ ) : विरत इविरत री चौपई ढाल १६.५०,५६,५७ ३. वही : जिनाग्या री चौपई ढाल १.३२,३५,३६ G
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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